शहरी विस्तार : दशा, दिशा और दुर्दशा


शहरी विस्तार : दशा, दिशा और दुर्दशा
विकास एवं विस्तार परस्पर पूरक न होकर एक तरह से विरोधाभासी अर्थ वाले शब्द हैं। विकास में गुणवत्ता और सुगम सहज व्यवस्था निहित है तो विस्तार अस्त-व्यस्त, बेतरतीब एवं अराजक रूप से जिंदगी को प्रभावित करने वाला होता है। हमारी शहरी बसाहटों में आज विकास नहीं अंधा विस्तार हो रहा है। आधुनिक शहरी बसाहटों का समाजशास्त्र एवं अर्थशास्त्र भयावह रूप से निरंतर खर्चीला एवं पूरी तरह से असामाजिक है। ऎसा इसलिए हो रहा है कि शहरी विकास के नाम पर हम हर मामले में शहरों का मनमाना एवं अराजक विस्तार कर रहे हैं। कहने को तो हमारे पास शहरी नियोजन एवं नगरीय शासन-प्रबंधन का विधान एवं शास्त्र है।

हम जिस तरह से शहरी बसाहटों का विस्तार कर रहे हैं, उसमें न तो नियोजन है और न ही किसी भी तरह से प्रबंधकीय कौशल का कोई लक्षण ही नजर आता है। अराजक रूप से विस्तारित शहरी जीवन का अर्थ "मैनेजिंग द मिस मैनेजमेंट" से जूझना हो गया है। जो प्राकृतिक जरूरतें सुलभ होनी चाहिए वे प्रतिदिन और अधिक दुर्लभ होती जा रही हैं। अराजक विस्तारित शहरों में नागरिकों की समस्याओं का समाधान न होकर समस्याओं का नया व्यापार मजबूती से खड़ा हो रहा है। पीने और वापरने का पानी हर घर बसाहट में सुलभ न होने के कारण हर नागरिक को पीने और वापरने का पानी बाजार से खरीदना पड़ रहा है। सड़कों पर जगह न होने से जाम में फंसी गाडियों में डीजल- पेट्रोल निरंतर व्यर्थ खर्च होता है।

उससे पहले से ही महंगा पेट्रोल प्रतिदिन और अधिक महंगा पड़ता है। इस परिस्थिति को हम मिलकर कैसे रोकें? क्या इसे रोकना असंभव है? क्या हमारे सोच-विचार एवं पहल में कमी है? या ऎसे ही शहरी विकास की विभीषिका को भोगते रहना हमारी नियति है? क्या शहरी विस्तार का सवाल हम सबकी निजी एवं सार्वजनिक जिंदगी का मुख्य सवाल नहीं है? क्या शहरी नागरिक जीवन, शहरी विस्तारजन्य दुर्दशा को भोगते रहने के लिए सदैव अभिशप्त बना रहेगा? या हम राज और समाज के सामने यह सवाल भी खड़ा करेंगे कि हमें अराजक विस्तार नहीं शहरी जीवन में मूलभूत जरूरतों को प्रतिदिन पूरा करने वाला जीवन की गुणवत्ता को निखारने वाला व्यवस्थित शहरी विकास चाहिए।

पानी, सड़क, सुरक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं आवास ये मूलभूत जरूरतें हमारे शहरों में किस दशा में है और किस दिशा में जा रही है? उसे हम आदर्श तो छोडिए क्या नियोजित शहरी विकास भी कह सकते हैं? सुरसा के मुंह की तरह निरंतर विस्तारित होते शहरों में रहने वालों के नागरिक अधिकार का कोई सम्मान निरंतर विस्तारित होते शहरों में हमें कहीं दिखाई देता या अनुभव भी होता है? हमारे शहर का अंतहीन विस्तार प्रतिदिन हमारे लिए मूलभूत जरूरतों का अभाव तो पैदा कर रहा है।

शहरी विकास के नाम पर अंतहीन शहरी विस्तार की योजना बनाना शहरी जीवन की समस्याओं को और अधिक गंभीर अवस्था में पहुंचाने की दिशा में पहुंचा कर पूरे शहरी समाज को दुर्दशा में ही हमेशा के लिए किसी तरह जीते रहने के लिए बाध्य करना है। यदि हमारे पास जमीन के अंदर और सतह पर पांच-दस लाख की आबादी का ही पानी है तो शहर के लिए चालीस या पचास लाख की आबादी के विस्तार की योजना बनाने का क्या अर्थ है? यदि शहर में 20 लाख की आबादी में 10 लाख से ज्यादा निजी वाहन हैं तो सड़कों पर वाहन चलाने या खड़े करने का ही स्थान नहीं है। तो इस शहरी आबादी को जो प्रतिदिन और ज्यादा वाहनों वाली आबादी बन रही है तो कम या नियंत्रण करने की बजाय हम शहर को और बडे भू-भाग में विस्तारित करना शहर का विकास क्यों मान रहे हैं? हम जागरूक नागरिकता को ही सभी समस्याओं का समाधान मानते हैं तो फिर निरंतर मूकदर्शक बने रहकर नागरिक जड़ता का ही विस्तार क्यों करते जा रहे हैं?
HTML clipboard 

No comments:

Post a Comment