बेटियों के बैरी


बेटियों के बैरी

शिक्षा के प्रसार, लिंगभेद के खिलाफ कड़े कानूनों और तमाम जागरूकता अभियानों के बावजूद हमारे समाज में बेटी को अवांछित मानने की मानसिकता अब भी काफी हद तक बनी हुई है। इसी का नतीजा है कि कभी कचरे के किसी ठिकाने के बाहर, सड़क किनारे, सार्वजनिक स्थान के एकांत कोने में कोई नवजात कन्या-शिशु लावारिस पाया जाता है तो कहीं पैदा होते ही किसी बच्ची को मौत की नींद सुला दिया जाता है। जन्म लेने से पहले ही बच्चियों से पिंड छुड़ाने की भी बहुत-सी घटनाएं होती हैं। फिर, अनेक माता-पिता बच्चियों को परिवार का बोझ मान कर उन्हें प्रताड़ित करते रहते हैं। कई ऐसे भी हैं जो उन्हें हालात के थपेड़े सहने को अकेला छोड़ देते हैं। बंगलोर का वाकया इसी त्रासद सिलसिले की एक झलक है। वहां एक आदमी ने अपनी तीन महीने की बेटी को जान से मारने की कोशिश की। बेटा न होने से बेहद दुखी इस आदमी ने पहले बच्ची को सिगरेट से जगह-जगह जलाया, फिर उसके सिर पर धारदार हथियार से वार कर दिया। वह पहले भी तीन बार उसे जान से मारने की कोशिश कर चुका था। फिलहाल बच्ची अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है। ऐसी ही एक घटना ग्वालियर में हुई, बेटे की लालसा पाले एक पिता ने पैदा होते ही अपनी बेटी को तंबाकू खिला कर मारने का प्रयास किया।
आज भी बहुत सारे लोगों का मानना है कि वंश-परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए बेटे का होना जरूरी है। इसलिए यह प्रवृत्ति केवल अपढ़ या कम पढ़े-लिखे, गरीब लोगों में ही नहीं, दूसरे तबकों में भी दिखाई देती है। आंकड़ों से भी इसकी   पुष्टि होती है। कन्या-भ्रूण हत्या की सबसे ज्यादा घटनाएं पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में दर्ज हुई हैं, जहां लोगों की आर्थिक स्थिति देश के अधिकतर राज्यों से बेहतर है। बेटे के प्रति अंध-मोह और बेटियों को अनावश्यक समझने की मानसिकता बहुत-से संपन्न और शिक्षित परिवारों में भी नजर आती है। साफ है कि इन तबकों में शिक्षा और आर्थिक प्रगति भले आई हो, पर आधुनिक सोच और संवेदनशीलता का विकास नहीं हो पाया है। आधुनिकता के नाम पर उपभोक्तावाद और अंग्रेजियत का बोलबाला ही अधिक दिखाई देता है। यह विडंबना ही है कि बच्चियों के प्रति आए दिन क्रूरता की खबरें ऐसे दौर में आ रही हैं जब शिक्षा सहित जीवन के अनेक क्षेत्रों में लड़कियों की भागीदारी काफी बढ़ी हुई दिखती है। पंचायतों और नगर निकायों में स्त्रियों के लिए आधी सीटें आरक्षित हो गई हैं और वे सार्वजनिक कामों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं। कई व्यापारिक घरानों का कामकाज बेटियों ने संभाला और साबित कर दिया कि यह क्षेत्र केवल लड़कों का मोहताज नहीं है। इसी तरह अनेक मामलों में देखा जा चुका है कि बेटियां बेटों से कहीं बेहतर अपने माता-पिता की देखभाल करती हैं। फिर भी लड़कियों को लेकर बहुत सारे लोगों के मन में गांठ बनी हुई है तो इससे यही जाहिर होता है कि समाज में रूढ़ और संकीर्ण मान्यताओं की पैठ अब भी बहुत गहरी है। इसके चलते जहां बहुत-सी लड़कियों को उपेक्षा और तिरस्कार सहना पड़ता है, वहीं आबादी का सामाजिक संतुलन भी बिगड़ रहा है। इस सिलसिले पर विराम लगाने के लिए समाज सुधार के बड़े अभियान की जरूरत है।
 
HTML clipboard 

No comments:

Post a Comment