| मां का नाम वर्किंग ग्रुप ने इस बात पर भी जोर दिया है कि मां-बाप के अलग होने की स्थिति में संपत्ति में स्त्री को हिस्सा दिलाने वाले या गुजारा भत्ता दिलाने वाले जो कानून हैं, उन पर भी अब संतान और उसके अभिभावकत्व को ध्यान में रख कर बदलाव करना चाहिए। महिलाओं को फर्स्ट गार्जियन बनाने की मांग दुनिया भर में जोर पकड़ने लगी है और कई जगहों पर ऐसा प्रावधान किया भी जा चुका है। हमारे देश में भी कुछ निजी संस्थान मां के नाम को ही प्राथमिकता दे रहे हैं। अब तक पुरुषों ने स्त्री की देह और कोख पर अपना अधिकार बनाए रखा है। वह स्त्री को बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा और कुछ नहीं मानता रहा है। बच्चे के लिए पैतृक नाम की अनिवार्यता बनाकर उसने स्त्री को उसके तमाम हकों से दूर रखने की साजिश की। लेकिन स्त्री अब उठ खड़ी हुई है। उसने अपना हक मांगना शुरू कर दिया है और इसके लिए उसने संघर्ष छेड़ दिया है। इसी के दबावों का नतीजा है कि समाज से लेकर प्रशासन तक के स्तर पर स्त्री को लेकर सोच बदल रही है। अब यह कहा जाने लगा है कि चूंकि जीव वैज्ञानिक दृष्टि से बच्चे की पहचान सबसे पहले मां से जुड़ी है, इसलिए उसे ही फर्स्ट गार्जियन होना चाहिए। समाज में व्यक्ति को मां से जाना जाए न कि बाप से। ऐसा होने से अविवाहित मांओं या तलाकशुदा महिलाओं को काफी राहत मिलेगी। उन्हें और उनके बच्चों को अप्रिय और अपमानजनक स्थिति का शिकार नहीं होना पड़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे वंशवाद की पारंपरिक अवधारणा कमजोर पड़ेगी, जिस वजह से लोगों में अब तक पुत्र का मोह बना रहा है। अब बेटी हो या बेटा, वह अपने बाप का नहीं, मां का वंश आगे बढ़ाने वाला होगा। बच्चे का मुख्य अभिभावक बनना दरअसल स्त्री की अस्मिता का सम्मान है। इससे औरत स्वतंत्र व्यक्ति या नागरिक के रूप में प्रतिष्ठित होगी। आज कई महिलाएं एक ऐसे पुरुष का नाम बेवजह ढोने के लिए अभिशप्त हैं, जिसने उनका साथ छोड़ दिया है। कानूनी मजबूरी के कारण वे उससे पीछा नहीं छुड़ा पाती हैं। बच्चे को उनका नाम दिए जाने से उनकी यह मजबूरी खत्म होगी। इससे बच्चे और मां के संबंध का स्वरूप भी बदलेगा। अभी बच्चे के मन में भी कहीं न कहीं यह भाव होता है कि मां की भूमिका दोयम दर्जे की है और परिवार में पिता ही प्रमुख हैं। इसलिए इस सुझाव को जल्द से जल्द अमल में लाया जाए। |
मां का नाम
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