भेदभाव का शिकार आधी आबादी


भेदभाव का शिकार आधी आबादी

भारतीय संस्कृति और समाज में नारी के प्रति सोच और व्यवहार का कड़वा सच बेंगलुरू में मासूम आफरीन की हत्या ने एक बार फिर उजागर कर दिया है। हम लोग भले ही मंदिरों में देवियों की पूजा करें पर हकीकत में हमारे रोजमर्रा जीवन में नारी को आज भी एक बोझ या श्राप के रूप में ही देखा जाता है और जोधपुर के उम्मेद अस्पताल की घटना में भी गलती चाहे किसी की भी रही हो, लेकिन यह साफ है कि नवजात बालिका को कोई भी परिवार अपनाना नहीं चाहता था क्योंकि वो बेटे के बदले में बेटी को तुच्छ मानते हैं। दोनों घटनाओं से यही साबित होता है कि हजारों वर्षो बाद भी भारतीय सामाजिक और व्यक्तिगत दृष्टिकोण में कोई ज्यादा बदलाव नहीं आया है और द्रौपदी को भाइयों में बांटने वाला समाज आज भी औरत को एक व्यक्तित्व नहीं एक भोगने वाली वस्तु ही समझता है।

हम आत्म-निरीक्षण करें तो पाएंगे कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा या भेदभाव बहुत हद तक हमारी सामाजिक सोच और व्यवहार का ही प्रतिबिम्ब है। सच कहिए, क्या हमारे घरों में अभी भी लड़कों और लड़कियों में भेद नहीं किया जाता? क्या अभी भी पुरूषों की तुलना में महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं होता? क्या दफ्तरों में औरतों कि हर कामयाबी पर टुच्ची टिप्पणियां नहीं की जातीं? क्या औरतों के किसी पराए मर्द से बातचीत करने पर घर, दफ्तर और मोहल्ले में फब्तियां नहीं कसी जातीं? क्या ज्यादातर घरों में अपनी लड़की और बहू के लिए अलग-अलग सामाजिक अपेक्षाएं नहीं रखी जातीं? क्या ज्यादातर पुरूष नारी देह को भोग-विलास की दृष्टि से नहीं तोलते और क्या स्त्री सम्बंधित गालियों का प्रयोग भी पुरूष प्रधान समाज के संकुचित दृष्टिकोण, नैतिकता और असभ्यता को नहीं दर्शाता?

विडम्बना देखिए कि जिस संस्कृति में बालिका को भी मां की संज्ञा दी जाती है, वहां सड़क पर होने वाली अभद्रता या बल प्रयोग को तो लोग हिंसा की संज्ञा देते हैं पर çस्त्रयो का जो मानसिक शोषण होता है, उस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। यही कारण है कि विभिन्न मंचों पर महिलाओं को उपभोग की वस्तु की तरह प्रदर्शित करना, महिलाओं की अश्लील फिल्में बनाना और देखना विद्वानों की नजर में भले ही सामाजिक हिंसा का घिनौना रूप हो, पर इस दृष्टिकोण से कानून के संरक्षक सहमत नहीं होते। तभी तो गुजरात या कर्नाटक की विधानसभाओं में डर्टी पिक्चर देखने वाले किसी विधायी सदस्य को उनके अक्षम्य व्यवहार से महिला जाति का अपमान करने पर भी सजा नहीं दी गयी, जबकि उन्होंने अपने कृत्य से संसदीय प्रांगण और प्रणाली दोनों का ही उपहास किया था।

संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के अनुसार समानता और स्वतंत्रता का अधिकार सब पर समान रूप से लागू होगा। पर क्या हकीकत में ऎसा है? कहने को भारत में महिलाओं को पूर्ण आजादी है पर असल में अनेक कृत्य हैं, जिनसे नारी पर हर रोज अत्याचार किया जाता है पर समाज उन सब कार्यो को नजर अंदाज करता रहता है। लगता है समाज महिलाओं के विषयों को लेकर गंभीर नहीं है। सुबह से शाम तक नारी छवि हर रोज कलंकित होती है और येे घटनाएं तब तक घटती रहेंगी जब तक हम सब अपने घर-आंगन की बोली और व्यवहार में बदलाव नहीं लाएंगे और अनेकों दुशासनों के विरूद्ध भीष्म और भीम की तरह नतमस्तक हो, मूक दर्शक बन बैठे नहीं रहेंगे। लोग ऎसी घटनाओं के लिए समाज और सरकार को दोष दे, खामोश हो जाते हैं। पर क्या इससे हमारा उत्तरदायित्व खत्म हो जाता है? क्या हम कभी गौर करते हैं कि आखिर सरकार और समाज की धुरी है कौन? दुख तो इस बात का है कि जब कार से लेकर साबुन तक हर चीज को बेचने के लिए स्त्री को निर्वस्त्र किया जाता है, तो कई बार महिलाएं खुद ही इसे स्त्री-शक्ति की संज्ञा देती हैं!
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