सुरक्षा बनाम दमन

सुरक्षा बनाम दमन

राष्ट्राध्यक्षों के आगमन पर निश्चय ही विशेष चौकसी बरती जानी चाहिए। लेकिन ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान पुलिस ने तिब्बतियों पर जैसी कार्रवाई की और पूर्वोत्तर के लोगों के साथ जैसा सलूक किया, उसे सही नहीं ठहराया जा सकता। इसलिए उच्च न्यायालय ने उचित ही दिल्ली पुलिस को फटकार लगाई है। लेकिन इसके लिए क्या सिर्फ पुलिस महकमा जिम्मेवार है? ब्रिक्स सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति हू जिनताओ के आगमन के मद्देनजर राजधानी की पुलिस को जो सुरक्षा संबंधी सख्त निर्देश दिए गए थे उनमें तिब्बतियों को किसी भी कीमत पर विरोध-प्रदर्शन से रोकने की बात शामिल रही होगी। इसकी गाज पूर्वोत्तर के लोगों पर भी गिरी। शायद इसलिए कि पुलिस उनमें और तिब्बतियों में फर्क  नहीं कर पाई। न सिर्फ बीच राह में वे जगह-जगह रोके गए और उनसे राष्ट्रीयता प्रमाणित करने वाले पहचान पत्र दिखाने को कहा गया, बल्कि विभिन्न थानों में उन्हें घटों पूछताछ से गुजरना पड़ा। स्वाभाविक ही यह सब उन्हेंअपमानजनक लगा। हर समय किसी के पास नागरिकता साबित करने वाले कागज हों यह जरूरी नहीं। इसलिए जो शक के दायरे में आए होंगे उनकी परेशानी का अंदाजा लगाया जा सकता है।
देश के हर नागरिक को कहीं भी आने-जाने का संवैधानिक अधिकार है। इसलिए पुलिस के इस व्यवहार पर राजधानी में रहने वाले पूर्वोत्तर के लोगों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। दिल्ली हाईकोर्ट ने भी नाराजगी जताते हुए पांच वकीलों की एक समिति गठित कर दी है जो यह पता लगाएगी कि महज पहचान संबंधी संदेह के आधार पर कोई पुलिस की हिरासत या जेल में तो नहीं है। लेकिन अदालत ने तिब्बती प्रदर्शनकारियों की भी सुध ली है। कहा है कि वे अपराधी नहीं हैं, इसलिए उन्हें तिहाड़ जेल से मुक्त कर आंबेडकर स्टेडियम भेजा जाए। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और उसने तिब्बतियों को शरण दे रखी है। अगर चीन के राष्ट्रपति के भारत आने पर तिब्बती समुदाय अपनी पीड़ा जाहिर करना चाहता है तो उसे इसकी छूट होनी चाहिए। जब तक विरोध-प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहता है तब तक उनके खिलाफ बल प्रयोग का कोई औचित्य नहीं हो सकता। अलबत्ता सुरक्षा-व्यवस्था का खयाल रखते हुए उनके विरोध-प्रदर्शन की कोई जगह निश्चित की जा सकती थी। लेकिन कहीं भी उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी गई। जैसे ही कोई तिब्बती नजर आया, उसे पकड़ कर तिहाड़ भेज दिया गया।
यों तो पूरे चीन में लोगों को लोकतांत्रिक अधिकार हासिल नहीं हैं, पर तिब्बत में मानवाधिकारों का दमन चरम रूप में है। वहां चीनी सरकार ने ऐसा शिकंजा कस रखा है कि विरोध प्रकट करने के लिए कई तिब्बतियों को आत्मदाह के अलावा और कोई तरीका नजर नहीं आता। दिल्ली में भी एक तिब्बती ने आत्मदाह कर लिया। अगर तिब्बतियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई गई होती तो यह त्रासदी शायद न होती। लेकिन चीनी नेतृत्व की नाराजगी के डर से कई बार हमारी सरकार इस सच को नजरअंदाज कर देती है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। दलाई लामा जब बाहर कहीं जाते हैं तो चीन की सरकार उस देश पर दबाव डालती है कि वह उन्हें न आने दे। कहने को दुनिया भूमंडलीकृत हो गई है, पर सवाल है कि यह कैसा भूमंडलीकरण है जिसमें ताकतवर राष्ट्रों या ताकतवर राष्ट्राध्यक्षों की ही चलती है, पीड़ित समुदायों को अपनी बात कहने का हक नहीं?
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