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असीम इच्छा है अनैतिकता की जननी |
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ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब सुबह-सुबह अखबारों पर हिंसा
के समाचार देखने को न मिलते हों। राह चलते भी ऐसे दृश्यों का
नजर आना आम हो गया है। सभ्य कहे जाने वाले आज के युग
में सड़कों पर जिंदगी की कोई गारंटी नहीं है। बाहर जाने वाला
घर लौट कर आएगा, कोई नहीं जानता। आखिर ऐसी स्थिति क्यों है?
आज भीड़ में से किसी भी निरीह आदमी को अपराधी खींच कर ले
जाता है या वहीं चाकू-गोली मारकर हत्या कर देता है और भीड़
खामोशी के साथ देखती रह जाती है। घायल को अस्पताल तक
ले जाने का कर्त्तव्य भी नहीं पूरा करती है। व्यक्तिवादी भावनाओं
के कारण हर कोई तमाशाई हो गया है। जब तक स्वयं उसके घर-
परिवार पर या उस पर कोई खतरा नहीं आता, तब तक वह
संवेदनहीन बना रहना है।
जाहिर है कि हर कोई अपने आप में कैद है और चारों तरफ द्वेष
और अविश्वास की दीवारें खड़ी हो गई हैं।
हमारी सबसे बड़ी भूल यह हुई है कि हम स्वयं कभी ठीक से समझ
नहीं पाए। इसी का परिणाम है कि हम खुद ही अपने विकास के लिए
बाधा बन गए हैं। हमने अपने भीतर की ओर झांकना बंद कर दिया
है। शरीर के स्तर पर केवल आदमी कहलाने लायक रह गए हैं। जो
अपने आपको आत्मा में विलीन कर देता है, वह श्रेष्ठ कहलाता है।
आत्मा के जागृत होने का मतलब है, धर्म को जीना। इसके लिए
धैर्य चाहिए। विद्वानों ने स्वीकार किया है कि दुनिया में धर्म के
कम होने का और कोई कारण नहीं है। कारण है धैर्य का कम हो
जाना, क्योंकि धैर्य ही धर्म की आधारभूत जड़ है। इसी धैर्य हीनता
ने आत्मा को किनारे कर दिया है। शरीर को महत्वपूर्ण बना दिया
है। आत्मा के स्तर पर हर किसी का अस्तित्व और अहं विलीन हो
जाता है जबकि शरीर के स्तर पर यह फुफकार मारता रहता है।
यीशु ने तो यहां तक कहा है कि जो अपने आपको बचाता है, वह
खो देता है मगर जो स्वयं को खो देता है वह सही अर्थों में जीवन
को बचा लेता है। इसी को कृष्ण ने कहा कि जो श्रेष्ठ है, वह स्वयं
को विलीन कर देता है।
इस दुनिया में हर कोई परिवार , धन , संपत्ति के त्याग की बातें
तो करता है। मगर कोई अपने आपको छोड़ने की बात नहीं कहता
है। भारतीय धर्म - दर्शन ने ' इदं न मम् ' की अभिव्यक्ति दी है
जो कि खोने की प्रक्रिया है। जिस दिन मानव ' इदं न मम् ' का
संस्पर्श कर लेगा , उसी दिन से उसके जीवन में रूपांतरण शुरू
हो जाएगा। तब अपने पास खोने के लिए कुछ रह नहीं जाएगा।
जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं रहेगा , उसके मन में ' पकड़ने '
की अनुभूति भी समाप्त हो जाएगी। यह पकड़ना या ' परिग्रह ' ही
सारे दु : खों , सारी अशांति , संपूर्ण अविश्वास का मूल है।
अपहरण , लूट - मार , अन्याय , शोषण - यह सब कुछ परिग्रह के ही
रास्ते हैं। जहां संवेदनशीलता एक मजाकिया शब्द है।
परिग्रह का मूल इच्छा में होता है। इस इच्छा को आवश्यकता से
नहीं जोड़ा जा सकता। आवश्यकता की मांग शरीर के स्तर पर
होती है जबकि इच्छा मन की चीज है। आवश्यकता की तो कोई
सीमा भी होती है जबकि इच्छा अनंत होती है। आवश्यकता की
संपूर्ति संभव है। अग्नि में जितना ईंधन डाला जाता है , अग्नि
और अधिक प्रज्वलित होती है। दुनिया भर में आज तक जितने
खून - खराबे हुए हैं या जितने क्रूर कर्म हुए हैं , उसके पीछे
आवश्यकता की भूमिका नहीं रही है। इसके पीछे इच्छा सक्रिय
रही है। इच्छा भी ऐसी जो अमर्यादित व असंयमित रही है।
उसकी कोई स्पष्ट दिशा नहीं रही है। इसी इच्छा ने अनैतिकता
को जन्म दिया है।
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