सम्वत्सर

सम्वत्सर
प्रकृति में ब्रह्म है पदार्थ, माया है क्रिया शक्ति और स्पन्दन हैं प्राण। क्रिया के निमित्त प्राण होते हैं। अक्षर सृष्टि ही प्राण लोक है, जिसका आलम्बन अव्यय पुरूष होता है। सृष्टि के कार्य कलापों को समझने के लिए इन तीनों तत्वों को, इनके बदलते हुए स्वरूपों तथा धरातलों को समझना उतना ही आवश्यक है, जितना कि सृष्टि को। माया के विस्तार का भी एक क्रम है और प्राणों के रूपान्तरण का भी। सृष्टि सत्तासिद्ध है। प्राण भातिसिद्ध है। ब्रह्म निराकार, निष्कल, निर्वचनीय है।

सृष्टि ऋत से होती है। पृथ्वी सूर्य के क्रान्तिवृत्त पर एक चक्कर लगाती है, उसे एक सम्वत्सर कहते हंै। ऋतागिAसोम से ही पार्थिव सृष्टि का निर्माण होता है और इसकी आयु भी तय होती है। अग्नि को गतिमान तथा सोम को आगतिमान कहा है। पदार्थ का निर्माण सोम द्वारा प्राणागिA को पिंड रूप में बदलने से होता है। हम चाहे ब्रह्माण्ड में देखें या जीवन में, अग्नि-सोम की क्रियाएं समान दिखाई देंगी।

सृष्टि ऋत से होती है। सृष्टि का मूल ऋत स्वयंभू है। इसकी व्याख्या नहीं हो सकती, सिवाय इसके कि यह मूल ऋषि प्राणों का ज्ञान क्षेत्र है। ऋषि प्राण सात हैं। इन्हीं से आगे के पितर, देव, गंधर्व, पशु आदि प्राण उत्पन्न होते हैं। स्वयंभू की गतिमान शक्ति (काल) से सम्वत्सर बनकर सृष्टि को उत्पन्न करती है। स्वयंभू और काल शक्ति, ब्रह्म और माया के द्वारा सृष्टि के आलंबन अव्यय पुरूष का निर्माण होता है।

अव्यय सत्य अवस्था है। सृष्टि नहीं कर सकता। इसका जो भाग अलग हो जाता है, उससे सृष्टि होती है। उदाहरण के लिए सूर्य का ब्रह्मोदन स्वयं सूर्य के स्वरूप की रक्षा करता है। इसका प्रवग्र्य अंश रूप रश्मियां भूत सृष्टि का निर्माण करती हैं। सूर्य सत्य, रश्मियां ऋत हैं।

सर्वत:त्सरन् गच्छति भूपिण्ड: स्वपरिभ्रमणममार्गे= परिभ्रमणात्मक क्रान्तिवृत्त "सर्वत्सर" कहलाया। यही "सम्वत्सर" है।
उत्तर-दक्षिण ध्रुव प्रदेशात्मक अर्द्धखगोल का परिमाण 180 अंश है। इसके बीच के पूर्वापर वृत्त बृहतिछन्द है (विष्वद् वृत्त)। इसके 900 पर उत्तर-दक्षिण ध्रुव है। क्रान्तिवृत्तीय पृष्ठी केन्द्र कदम्ब और विष्वद्वृत्तीय पृष्ठी केन्द्र ही धु्रव है। बीच में विष्वद्वृत्त है। इसके उत्तर-दक्षिण में 240 -240 का परिसरात्मक मण्डल है। यह 480 का परिसर ही सम्वत्सर है। इसके दो स्वरूप हैं-वयोनाध और वय।

भातिसिद्ध छन्दोरूप सम्वत्सर वयोनाध है। कालात्मक है। छन्द से सीमित वस्तु रूप सम्वत्सर वय रूप है। सत्ता सिद्ध है। अग्न्यात्मक सम्वत्सर है। अड़तालीसवें अंश की परिधि से समन्वित वृत्त ही वह क्रान्तिवृत्त है, जिस पर भूपिण्ड घूम रहा है।

सत्यागिA-सूर्य, पृथ्वी आदि तथा सत्य सोम-चन्द्रमा-शुक्र आदि से ही ऋत अग्नि और सोम कहलाए (प्रवग्र्य रूप अलग होकर)। "उच्छिष्टाज्जçज्ञरे सर्वम्" उच्छिष्ट से ही सृष्टि होती है (अथर्व)। ऋतागिAसोम से ही प्रजोत्पत्ति होती है। कालात्मक खगोलीय सम्वत्सर के उत्तर में ऋतसोम और दक्षिण में ऋतागिA है।

गमनागमन के द्वारा ऋतागिA में ऋत सोम की निरन्तर आहुति लगती रहती है। यही संवत्सर यज्ञ है। पार्थिव प्रजासर्ग का उपादान कारण यही है। यज्ञ से संायोगिक भाव (ऋतु) पैदा होता है। वैज्ञानिक अनुबंध से पांच ऋतुएं बनती हैं। अत: यह यज्ञ पांक्त (पंचावयव) कहलाया। इसी से पंच प्राण, पंचभूत, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पांच अंगुलियां आदि बने। हेमन्त-शिशिर को एक शीतकाल मानने से पांच ऋतुएं बनीं।

सोम-शीतल-तत्व के धरातल पर अग्नि कणों के उतार-चढ़ाव से ऋतुएं या संवत्सर बनता है। सर्दी-गर्मी-वर्षा होते हैं। अग्नि का का विकास बसन्त-ग्रीष्म-वर्षा काल तथा अग्नि का ह्रास शरद-हेमन्त-शिशिर कहलाता है। अग्नि ही सोम का रूप लेता है। जैसे-जैसे ऊपर उठता है, शीतल होता जाता है।

स्वयंभू लोक के चारों ओर तप: लोक है। परमेष्ठी लोक इसी स्वयंभू की परिक्रमा करता है। "आन्द" वृत्त पर। सत्य रूप स्वयंभू के ऋत से परमेष्ठी का ऋत सोम मिलकर अक्षर सृष्टि का निर्माण करते हैं। ऋषि प्राण परमेष्ठी में पितर प्राणों का रूप ले लेते हैं। परमेष्ठी के अधिष्ठाता विष्णु प्राण हैं। इनकी नाभि में ही ब्रह्मा प्राण रहते हैं। नाभि की ही ह्वदय, उक्थ, गर्भ, केन्द्र संज्ञाएं हैं। केन्द्र में जो स्थिति अथवा प्रतिष्ठा तžव रहता है, उसके धरातल पर गति तžव का जन्म होता है।

गति सदा केन्द्र से परिधि की ओर जाती है। वही जब केन्द्र की ओर आती है तब आगति कहलाती है। स्थिति है ब्रह्मा, गति है इन्द्र और आगति विष्णु है। यही ह्वदय है। ह्व=आहरण, द=अवखण्डन, य=नियमन। केन्द्र के विकास पर ही वृत्त का विकास/ स्वरूप निर्भर करता है। ह्वदय विद्या को ही अक्षर विद्या कहते हैं। क्योंकि ये तीनों ही मूल अक्षर प्राण हैं। प्राण की शक्ति से ही भूतपिण्ड का निर्माण होता है। केन्द्र, व्यास, परिधि को ही क्रमश: यजु, ऋक्, साम कहते हैं।

सृष्टि निर्माण के मूल तžव हैं यजु और साम। व्यास और परिधि से ही छन्द अथवा आयतन बनता है। इसी में प्राण कार्य करता है। इसी के रस भाग को यजु कहते हैं। "रसो वै स:" के आधार पर यही ब्रह्म है। ऋक्-यजु-साम के स्पन्दन से ही ऋत का सत्य बनता है। केन्द्र की प्राणागिA बाहर से अपने लिए अन्न लाती है। अशनाया/अग्नि शान्त हो जाती है। कुछ समय बाद (छन्द के नियमन द्वारा) रूद्रागिA फिर तेज होने लगती है। इन्द्र प्राण बाहर जाता है। अन्न लेकर विष्णु रूप केन्द्र में आता है। अग्नि में अग्नि का चयन "चित्या" और सोम का चयन सुत्या कहलाता है। अग्नि-सोम-विद्या को वैश्वानर या ह्वदय-विद्या भी कहते हैं।

पृथ्वी की अग्नि (पार्थिव), अन्तरिक्ष की अग्नि वायु और द्युलोक की अग्नि से स्पन्दित प्राण शक्ति वैश्वानर है। तापमयी, उष्मा शक्ति है। प्राण गति तžव, ऋषि है। "प्राणों वै समंचन प्रसारणम्"-फैलना और सिमटना (फड़कन) ही प्रजापति का मौलिक स्वरूप है। शरीर में भी प्राण-अपान का स्पन्दन ही वैश्वानर अग्नि है। पृथ्वी और द्यु लोक रूप युगल तžव का यज्ञ है। इनकी संधि अन्तरिक्ष है। अग्नि-वायु-आदित्य एक अग्नि के ही तीन रूप हैं। एक गति तžव के ही गति-आगति-स्थिति रूप बनते हैं। आगे यही वैश्वानर-तेजस-प्राज्ञ होते हैं।

अग्नि-सोम का यह रूप, चन्द्रमा और पृथ्वी की परिक्रमा के कारण ही संवत्सर का निर्माण होता है। एक संवत्सर चक्रात्मक और दूसरा यज्ञात्मक होता है। परिक्रमा के आपसी प्रभाव से "काल की अवधि" रूप जो आयतन बनता है, वह चक्रात्मक संवत्सर रूप पात्र बनता है। इस पात्र में और परिक्रमा अवधि में किरणों के द्वारा सूर्य की जो शक्ति भरती है, इससे सौरमण्डल की वस्तुओं का निर्माण होता है। इसको ही यज्ञसंवत्सर कहते हैं। चक्रात्मक संवत्सर भातिसिद्ध है। यज्ञसंवत्सर सत्तासिद्ध है। दिखाई देता है।
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