भेदभाव के स्कूल

भेदभाव के स्कूल

दिल्ली राजधानी है। यहां से बहुआयामी संस्कृति की बुनियाद को मजबूत करने वाले संदेश देश भर में जाने चाहिए। मगर दिल्ली के निजी स्कूलों में बच्चों के दाखिले की बाबत जो खबर आई है, वह बेहद चिंताजनक है। एक सामाजिक कार्यकर्ता की जुटाई गई जानकारी के मुताबिक मुसलिम बच्चों को बेहतरीन माने जाने वाले स्कूलों से वंचित रखा जा रहा है। अव्वल तो यह एक बेहद अफसोसनाक स्थिति है कि देश भर में सरकारी स्कूलों की दशा लगातार बदहाल बनी हुई है। दूसरे, अगर कोई व्यक्ति अपने बच्चे को अच्छी पढ़ाई-लिखाई के मकसद से निजी स्कूल में भेजना चाहता है तो उसकी मजहबी पहचान इसमें आड़े क्यों आनी चाहिए? हालांकि यह कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है, लेकिन दिल्ली के बानवे निजी स्कूलों में दाखिले की जो सूची सामने आई है, उसमें लगता है कि व्यावहारिक रूप से शायद ऐसे पैमाने अपनाए गए होंगे जिनके चलते मुसलिम बच्चों की मौजूदगी नाममात्र की रही। बीस फीसद से ज्यादा स्कूल तो ऐसे हैं जिनमें एक भी मुसलिम बच्चे का नाम दर्ज नहीं है। जबकि खाली स्थानों के मुकाबले दाखिले के लिए आवेदन करने वालों में उनकी तादाद अच्छी-खासी थी और कहीं-कहीं पचास फीसद तक। यह स्थिति तब है जब एक सौ उन्यासी में से सत्तासी स्कूलों ने नामांकन से जुड़ी जानकारी अपनी वेबसाइट पर मुहैया नहीं कराई, जो शिक्षा निदेशालय के निर्देशों के मुताबिक अनिवार्य है। स्कूलों के प्रबंधक-संचालक प्रवेश के लिए अंक-प्रणाली का हवाला दे सकते हैं। लेकिन अगर किसी स्कूल के नजदीक रहने वाले बच्चे को कम अंक दिए जाते हैं और दूर वाले को अधिक, तो निश्चित रूप से यह संदेह का कारण बनता है। दूसरी ओर, दिल्ली पब्लिक स्कूल
HTML clipboard का उदाहरण है जहां पचीस फीसद से भी ज्यादा मुसलिम बच्चों को दाखिला मिला। पर यह अनेक स्कूलों के बेजा पूर्वग्रहों का ही नतीजा है कि ओखला इलाके से मुसलिम समुदाय के बच्चे बसों में भर कर नोएडा के निजी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं।
सच्चर आयोग की रपट सहित कई अध्ययन बताते हैं कि शिक्षा से लेकर विकास की सभी कसौटियों पर मुसलिम समुदाय काफी पीछे रह गया है और इसके पीछे उपेक्षा ही सबसे बड़ी वजह रही है। लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों की ओर से अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि मुसलिम समुदाय अपनी धार्मिक संकीर्णताओं के कारण आधुनिकता और विकास की मुख्यधारा से जुड़ने में दिलचस्पी नहीं लेता। जबकि यहां मामला अपने बच्चों को उन निजी स्कूलों में पढ़ाने के सपने से जुड़ा है, जिनके बारे में कहा जाता है कि वहां न केवल शिक्षण का स्तर ऊंचा है बल्कि उनका परिवेश भी आधुनिक और प्रगतिशील है। लेकिन दाखिले में धार्मिक आधार पर भेदभाव के आरोप अगर सच हैं तो यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस तस्वीर के साथ हम किस भविष्य की बुनियाद रख रहे हैं। निजी स्कूल कौड़ियों के भाव ली गई सरकारी जमीन पर बनाए जाते हैं और इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि आखिरकार ये भी एक संवैधानिक व्यवस्था के तहत चलने को बाध्य हैं। अगर वहां भेदभाव होने की शंका पैदा हो रही है तो उसे दूर करना न केवल खुद स्कूलों की जिम्मेदारी है, बल्कि सरकार को इस मामले में सख्ती बरतनी चाहिए। शिक्षा को सांप्रदायिक सौहार्द के उद्देश्य से काट कर नहीं देखा जा सकता। मगर इस तकाजे को कैसे पूरा किया जा सकता है जब दाखिले के स्तर पर ही इसकी अनदेखी कर दी जाए।

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