सत्ता की ताकत देश आज नेताओं से वैसे ही परेशान है, जैसे पहले गोरों से था। देश के हर कोने से नेताओ को कोसने की बातें उठती रहती हैं। फिल्में बन रही हैं। गाने सुनाए जा रहे हैं। कार्टून बन रहे हैं। अदालतें जब नेताओं को सजा देती है, तो खुशी की लहर जागती है। पटाखे छोड़े जाते हैं। पर क्या हम असल में नेताओं से नफरत करते हैं? नेता हमारे ऊपर थोपे नहीं जाते, आम जनता से निकलते हैं और आम जनता के वोटों से ही नेता बनते हैं। नेता बनने से पहले लोग जनता की सेवा करने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं।
घरों में जाते हैं। बरसों की मेहनत के बाद चुनाव जीतते हैं और वह भी जनता के वोटों से। फिर ऎसा क्या होता है कि रातों-रात लोगों का अपना नेता दुश्मन बन बैठता है। वह शराफत का पुतला एकदम रिश्वतखोर बन जाता है। औरतों के पैर छूने वाला उन्हें देखते ही दबोचने वाला बन जाता है। रातों-रात उसकी झोपड़ी वीरान हो जाती है और वह आलीशान मकान में शिफ्ट हो जाता है। अर्दलियों की जमात लग जाती है। बंदूकधारी उसकी रक्षा करने में लग जाते हैं, जिसका काम जनता की रक्षा करना होता है। जनता का गुस्सा इतना बढ़ जाता है कि हरविंदर सिंह जैसा सिरफिरा मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारने की हिमाकत करने लगता है। यह बदलाव सत्ता की ताकत से आता है। हम नेताओं को दोष देते हैं, पर दोष देना चाहिए उस तंत्र को जिसमें राज के पास बेशुमार ताकत है। सरकार का काम लोगों को काम करने में सहूलियत देना होना चाहिए। जो काम लोग खुद न कर सकें, उसे सबकी राय, सबकी सुविधा के लिए करना चाहिए।
हकीकत यह है कि सरकारें मालिक बन बैठी हैं और जनता नौकर। सरकारी नौकरशाही आम जनता पर हावी है और वही नेताओं को बदलती भी है, ताकि नौकरशाहों के कुकर्मो का ठीकरा नेताओं के सिर पर फोड़ा जा सके। नेता बेचारे इससे पहले समझें कि वे तो कठपुतली हैं, उन्हें इस तरह दलदल में लपेट लिया जाता है कि वे चाहकर भी निकल नहीं सकते। सरकारी तंत्र उन पर इतनी सुविधाएं लाद देता है कि वे जनता से दूर राजा-ए-राजा बन जाते हैं और करोड़ों में खेलने लगते हैं। नौकरशाह चाहे कहते रहें कि वे नेताओं के गुलाम हैं, पर ये वे गुलाम हैं जो मालिकों को इशारों पर हांकते हैं। नेताओं से छुटकारा पाना है, तो सरकार की ताकत कम करो। नेताओं को जेल न भेजो, उनके पर काटो, नेता का काम मालिक बनना नहीं, सेवक बनना हो। पर अगर जनता को गुलामी की आदत पड़ी हो, तो क्या किया जाए। अगर नेता को देवता की तरह रिश्वत की भेंट देकर खुश करने की तमन्ना हो, तो क्यों न वे बिगड़ें। हरविंदर सिंह जैसे दो-चार थप्पड़ मार लें, पर इससे कुछ बिगड़ने वाला नहीं। क्या नेताओं की चमड़ी के बारे में आपको पता नहीं कि वह कितनी मोटी होती है?
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