आसक्ति से दूर


आसक्ति से दूर

बात उस समय की है जब महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइन्स्टीन को चारों ओर से ईनाम, पुरस्कार और उपाधियां मिल रही थीं, उनकी खोज का हर जगह गुणगान गाया जा रहा था, किंतु वे इन सब चीजों से सर्वथा निर्लिप्त अपने शोध और रिसर्च कार्य में संलग्न थे। आसक्ति से वे सर्वथा दूर थे। मोह भी नहीं था।

इसी दौरान अमरीका के सबसे धनी व्यापारी राकफेलर ने उन्हें पचास हजार रूपए का चेक भेंट किया। इतनी बड़ी राशि उस समय बहुत बड़ी राशि थी। आइन्स्टीन ने चेक स्वीकार करते हुए उसे अपनी किताब में पृष्ठ संख्या याद रखने के लिए पृष्ठ के बीच में जो चिट फंसाई जाती है, उस तरह "बुकमार्क" के रूप में रख दिया। इतनी बड़ी राशि का चेक भुनाने का उन्हें स्मरण ही नहीं आया।

अचानक एक दिन उनकी पत्नी ने चेक की याद दिलाई तो आइन्स्टीन ने लापरवाही से कहा- यह तो मुझे याद ही नहीं रहा। पत्नी के पूछने पर उन्होंने कहा- "किसी किताब में पड़ा होगा। बहुत खोजने पर भी चेक नहीं मिला तो आइन्स्टीन ने कहा-"एक बुकमार्क के लिए इतनी क्या चिंता, दूसरा पेपर लेकर उसे डाल दो, उससे मेरा काम चल जाएगा।"

पत्नी अपने पति का यह उत्तर सुनकर मौन रह गई। वह कहती भी क्या? उसके पास कहने के लिए कुछ था ही नहीं। आइन्स्टीन बुक मार्क की चिंता छोड़ पुन: अध्ययन में लग गए। उनके लिए विज्ञान की खोज ही प्रमुख थी, क्योंकि उससे ही उन्हें अपार आनंद और संतोष्ा का अनुभव होता था।
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