क्यों हो जाता है प्यार?



क्यों हो जाता है प्यार?

क्या मनुष्य स्वभाव से एकनिष्ठ है? नहीं है। क्यों नहीं है? 
इसलिए नहीं है कि कोई भी इंसान परफ़ेक्ट है। कोई नहीं है, 
जिसमें दुनिया के सारे गुण हों। न आप ऐसे हैं, न मैं, न कोई 
और। एक शख्स में कुछ गुण है तो दूसरे में कोई और गुण हैं। 
इसलिए आपको कभी कोई अच्छा लगता है तो कभी कोई और। 
और इस तरह आप एकसाथ या एक के बाद एक कई लोगों से 
प्यार करते हैं। हां ,यह सही है कि इन सभी से प्यार एक जैसी 
गहराई से नहीं होता। प्रेम आमतौर पर पांच कारणों से होता है - 
रूप, व्यवहार, गुण, साथ और सेक्स। सभी आपको सुख देते हैं।

सुंदर रूप
एक सुंदर चेहरा या बदन आंखों को सुख देता है। कोई अगर कटरीना 




कैफ का फैन है और उसकी तस्वीरें दीवारों पर लगाता है तो उसका 
कारण यही है कि कटरीना का सुंदर चेहरा उसे सुख देता है। वह जवाब 
में कटरीना से सीधे कुछ नहीं पा रहा, यह अलग बात है, लेकिन वह जो 
दीवानगी शो कर रहा है, वह एक तरह का प्यार ही है। ऑफिस में कुछ 
शक्लें हमें अच्छी लगती हैं तो इसका मतलब यह कि हम शक्ल के कारण 
उस शख्स से प्यार करते हैं। राह चलते भी हमें कोई सूरत भली लग जाती है। 
यह एक लम्हे का प्यार है।

उम्दा बर्ताव
अच्छे बर्ताव के कारण भी कोई एक या कई लोग आपको प्यारे लग सकते हैं। 

आप अपने पति या पत्नी से कितने ही संतुष्ट क्यों न हों लेकिन अगर दफ्तर 
में कोई कलीग आपको बिना किसी मतलब के लंच टाइम में पराठा या इडली 
शेयर करने का ऑफर दे तो उसके व्यवहार के आकर्षण को आप किस तरह 
नकार पाएंगे? उसका ऑफर बताता है कि उसे आपका साथ पसंद है, वह 
आपको खुश करना चाहता/चाहती है, और इसीलिए वह आपको कुछ दे रहा/रही 
है। अब अगर आप भी एक सेंसिटिव शख्स हैं तो आप भी उसे कुछ देंगे ही। 
यह देना एक कप स्पेशल चाय के रूप में हो सकता है। लेकिन एक बात यहां 
ध्यान देने की है - अगर यह देना सिर्फ कर्ज उतारने के लिए है तो यह एक सौदा होगा।

बेहतर गुण
गुण की वजह से भी प्यार हो सकता है, बशर्ते आपको उस 

गुण की कद्र हो। 
और अगर वह गुण ऐसा हो, जो आपके जीवनसाथी में नहीं है 
तो यह बहुत ही तगड़ा आधार बन सकता है एक्स्ट्रा-मैरिटल 
प्रेम का। किसी का पति अगर रात को शराब पीकर आता हो,
 गाली-गलौज करता हो, पत्नी और बच्चों को पीटता हो, तो 
वह परेशान स्त्री पड़ोस के उस सज्जन पुरुष को क्यों नहीं 
सराहेगी, जो वक्त पर घर आता हो और पत्नी और बच्चों 
के साथ घूमने निकलता हो!

संग-साथ
साथ रहने से भी आत्मीयता पैदा होती है। शादी के बाद साथ रहते-रहते 

जो प्रेम पैदा होता है, वह साथ रहने से भी है। वैसे साथ रहना जहां प्रेम 
को जन्म देता है, वहीं वह रिश्ते में उकताहट का कारण भी है। प्रेम इस 
वजह से कि बहुत-कुछ मिल रहा है और बोरियत इस वजह से कि नया 
कुछ नहीं मिल रहा है।

सेक्स
सेक्स के कारण आकर्षण के बारे में ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं। 

यह ज्यादा तीव्र होता है क्योंकि इसके साथ बायलॉजिकल कारण जुड़े 
रहते हैं। लेकिन इसे हम केवल देह का मामला नहीं मान सकते। यह 
पूरी तरह शख्स से जुड़ा है वरना इंसान प्रेम किसी से करता, सेक्स 
किसी और से।

वाकई जमाना बदल रहा है!
 बड़े-बुजुर्ग वाकई सही कहते हैं— जमाना बदल रहा है। जब उनके मुंह 

से यह शब्द निकलते हैं, तब उनके दिल में दर्द होता है। टीस होती है, 
उन सामाजिक मूल्यों-मान्यताओं के टूटने की जो सैकड़ों-हजारों सालों 
में बड़ी मुश्किल से बनती है। बेशक ऎसा कहते समय उनके ध्यान में 
इंसान के चन्द्रमा पर जाने से लेकर कम्प्यूटर और मोबाइल क्रांतियों 
की उपलब्घियां भी रहती हैं, लेकिन उन्हें लगता है कि, इनसे कहीं बड़ी 
उपलब्घि सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं के ताने-बाने की है। यही 
पीढियों का अन्तर है जिसे आम बोल-चाल में हम "जनरेशन गेप" कहते हैं।

बहुत से मौकों पर इन बड़े-बुजुर्गो से बात करने का मौका मिलता है। 

सामूहिक रूप से भी और अकेले भी। मुझे ही नहीं, मेरी जैसी उम्र के 
सब लोगों को ऎसा मौका मिलता ही होगा। उनकी सबसे बड़ी चिंता 
घर-परिवार और उसके जरिए समाज के टूटने की होती है। आप और 
हम जब उनको घर-परिवार की बढ़ती आमदनी, देश की तरक्की और 
बढ़ती विकास दर की कहानियां सुनाते हैं तो वे घर-परिवारों के साथ 
देश में जाति और धर्म के नाम पर बढ़ रहे झगड़ों, गरीब-अमीर की 
बढ़ती खाई और लुटते सुख-चैन के किस्से सुनाने लग जाते हैं। उन्हें 
भरोसा ही नहीं होता कि, उनसे बहस कर रहा इंसान उन्हीं की संतान 
और उन्हीं का खून है। इस सारी बहस के अंत में उनका एक ही निष्कर्ष 
होता है जितनी भूख बढ़ाओगे, अपनों से दूर होते जाओगे। बरबादी 
उतनी ही करीब आती जाएगी।

कुछ दिनों पहले हुए ऎसे ही एक संवाद के बाद मैंने खुद महसूस 

किया कि, भले परिवर्तन प्रकृति का नियम है लेकिन पिछले वर्षो 
में हम कुछ ज्यादा ही तेजी से बदले हैं। आर्थिक बदलाव की बात 
किसी और मौके के लिए छोड़ दें तो घर-परिवार और समाज में तो 
हम खूब बदल लिए। किसी जमाने में धोती-कुर्ता और पायजामा 
हमारी पहचान हुआ करती थी, आज हम बरमूडा पर आ गए। 
महिलाएं भी (सब नहीं) साड़ी-ब्लाऊज और घूंघट छोड़ चुकीं। 
सलवार सूट भी पीछे छूट गया। अब तो बात हॉफ पैंट तक पहुंच गई। 
पहनावा ही नहीं, हमने संयुक्त परिवार भी पीछे छोड़ दिया। "हम 
दो - हमारे दो" के बाद महानगरों में तो अब "हम दो" भी नहीं रहे। 
लिव-इन-रिलेशनशिप में कोई किसी का नहीं होता। जरूरत हो तो 
सेक्स होता है, पर बच्चे नहीं होते। डर यह रहता है कि रिलेशनशिप 
टूट गई तो उन्हें कौन पालेगा? कहीं सड़कों पर भीख मांगते नहीं डोलें।

खैर, ये सब बातें तो अभी किसी एक या कुछ व्यक्ति-परिवारों 

तक सीमित हैं। ज्यादा तकलीफ घर से लेकर समाज तक 
एक-दूसरे के प्रति दर्द, चिंता और सरोकारों के कम होने की है। 
जयपुर की एक घटना पिछले दिनों आप सबने पढ़ी होगी जिसमें 
अशोक कुमार नाम का एक व्यक्ति, किराए के मकान में अपनी 
पत्नी की लाश छोड़कर इसलिए भाग गया कि, उसके पास उसकी 
अन्त्येष्टि के लिए पैसे नहीं थे। यह घटना साधारण नहीं है। यह हम सब पर 
एक-दो नहीं, दनादन अनेक तमाचे तो जड़ती ही है, हमें वापस 
ले जाकर उन्हीं बुजुर्गो के सामने कटघरे में खड़ा करती है जिनसे 
हम "जनरेशन गेप" के नाम पर बहस करते नजर आते हैं।
थोड़ा पीछे जाकर देखता हूं तो मुझे लगता है कि तीस-चालीस 

साल पहले इस शहर में ऎसा संभव नहीं था। गांवों में तो शायद 
आज भी संभव नहीं हो। मुझे अपना बचपन याद है, जब पानी 
भरने वाला भिश्ती दिखते ही हम नन्ने चाचा-नन्ने चाचा कहकर 
चिल्लाने लगते थे। या कि झाड़ू लगाने के लिए देरी से आने पर 
हमारी मां मेहतरानी को, गंगाबाई आज तो आपने बहुत देर कर 
दी, का प्यार भरा उलाहना देती थीं। गाय का दूध निकालने के लिए 
ग्वाले के रूप में आने वाले रामलाल बाबा को आने में देरी होने पर 
हम डरते हुए धीरे से कहते— बाबा जल्दी आया करो, नींद आती है। 
फिर दूध कैसे मिलेगा? कहने का मतलब तब हम एक-दूसरे से ऎसे 
गूंथे-बंधे हुए थे कि, किसी को किसी का जाति-धर्म पता ही नहीं था।

बिना किसी कानून के सब एक-दूसरे की इज्जत का, जरूरतों का

 ध्यान रखते थे। देखें कोई भूखा सो तो जाए। गंगाबाई को रोटी भी 
मिलती थी तो गरमा गरम। जिस दिन ठंडी मिल जाती, वह ऎसा 
प्यार भरा उलाहना देती कि घर की चारों बहुएं चारों खाने चित्त हो 
जातीं। गंगाबाई बात को बिस्तर पर ही लेटी रहने वालीं बूढ़ी दादी 
तक न पहुंचा दे, इस डर से उनकी पूरी मान-मनुहार करतीं। ज्यादा 
दिन नहीं हुए जब पड़ोस ही नहीं, मोहल्ले में कोई मौत हो जाती तो 
पूरे मोहल्ले के किसी भी घर में चूल्हा नहीं जलता था। आज हम 
अपनों से ही कितने दूर हो गए।

हमें पता ही नहीं चलता कि बराबर के कमरे, घर में एक ऎसी महिला की 

लाश है, जिसका पति उसे इसलिए छोड़ गया कि उसके पास उसके अंतिम 
संस्कार के लिए पैसा नहीं है। इससे भी ज्यादा अफसोस और शर्म तब आती
 है, जब उसके अंतिम संस्कार के लिए उसी व्यक्ति की जाति से जुड़े संगठन
 के लोग पहुंचते हैं। कहां गई हमारी इंसानियत? वहां रहने वाले या शहर के 
सारे समाजों के लोग वहां क्यों नहीं पहुंचे? मकान मालिक ने मुस्लिम होते 
हुए भी मदद की। उसकी तारीफ की जानी चाहिए। लेकिन यदि उस दम्पती 
के पास दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ नहीं था, बीमारी का इलाज कराने लायक 
पैसा भी नहीं था, तब उसे और पहले जागना चाहिए था। अब तो राज्य सरकार 
इलाज के लिए मुफ्त दवाइयां दे रही है। जरूरत पड़ने पर रोजगार के लिए 
मनरेगा से लेकर रहने खाने के लिए रैन-बसेरों से लेकर अक्षयपात्र तक 
योजनाएं हैं, फिर कोई कैसे भूखा सो जाए, भूखा मर जाए? जरूरत केवल 
जागरूकता की और जरूरतमंद तक मदद पहुंचाने की है। हो सकता है, हर 
आदमी के पास मदद के लिए पैसा न हो, लेकिन इंसानियत के लिए तो पैसे 
की जरूरत नहीं है। वह तो इंसान के अंदर ही होती है। हां, बनती और आती 
जरूर घर-परिवार तथा समाज के दिए संस्कारों से है। हमारे बुजुर्ग शायद इसी 
के लिए चिंतित हैं। हमें भी होना चाहिए ना।
काल का चक्र
इस बात को सभी जानते हैं कि मैं कुछ लेकर नहीं आया और साथ में कुछ 

लेकर जाना भी नहीं है। इस धरती से इतने बड़े-बड़े लोग जिनके राज में 
कभी सूरज नहीं डूबता था, एक दिन सदा-सदा के लिए अस्त हो गए, चले गए। 
काल ने किसी पर रहम नहीं किया।

च्वांगसे जो चीन के एक महान दार्शनिक हुए हैं, एक बार श्मशान के रास्ते से 

गुजरते हुए कहीं जा रहे थे। अचानक उनका पैर एक खोपड़ी से टकरा गया। 
च्वांगसे रूके, उस खोपड़ी को ध्यान से देखा, फिर उसे हाथ में लेकर उससे 
बार-बार क्षमा-याचना करने लगे। वे उस खोपड़ी को अपने घर ले गए और 
उसे आले में रखकर बार-बार क्षमायाचना करने लगे। मित्रों ने च्वांगसे को 
ऎसा करते देखा तो बोले— "च्वांगसे! तुम पागल तो नहीं हो गए? इस मानव 
खोपड़ी से बार-बार क्षमा मांगने का क्या अर्थ? यह तो हड्डी है।"

च्वांगसे ने कहा— "तुम लोग शायद नहीं जानते कि यह किसी सम्राट की 

खोपड़ी है। इस पर मेरे पैर ने ठोकर मारी। सोचो, अगर आज यह जिंदा होते 
तो मुझे कितना कठोर दंड देते। जीवन काल में इनसे कितने लोग भयभीत 
रहे होंगे। कितने लोग एक इशारे पर नाचे होंगे। इसने तो कल्पना भी नहीं 
की होगी कि एक दिन ऎसा भी आएगा, जब उसकी खोपड़ी श्मशान में 
लावारिस पड़ी किसी के पांवों की ठोकर खाएगी और वह कुछ नहीं कर पाएगा। 
 मृत्यु एक चिरंतन सत्य है। इससे आज तक न तो कोई बच पाया है, न बच 
पाएगा, यह समझने की बात है।

कहने का तरीका आए
चापलूसी हमेशा काम नहीं देती। एक कहानी है। जंगल में वनराज 

शेर को प्रधानमंत्री की नियुक्ति करनी थी। शेर ने गधे, घोड़े, बैल- 
सभी को आमंत्रित किया। उसने सबसे पहले घोड़े को बुलाया और 
पूछा- "बताओ, मेरे मुंह से कैसी गंध आ रही है?" घोड़े ने कहा- 
"क्या पूछते हैं राजा साहब! भीनी-भीनी सुगंध आ रही है, बिल्कुल 
वैसी ही जैसी फूल से आती है।" प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्ति 
होनी थी, इसलिए घोड़ा पूरी तरह से चमचागिरी पर उतर आया था। 
शेर ने कहा- "तुम सच्चाई को व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो। 
इसलिए इस पद के योग्य नहीं।" फिर बैल से कहा- "तुम बताओ 
वृष्ाभजी! मेरे मुंह से कैसी गंध आ रही है?"

बैल घोड़े का अंजाम देख चुका था, इसलिए सच बोलना ही उचित 

समझा। उसने कहा "महाराज! आपके मुंह से बड़ी दुर्गध आ रही है।
" शेर ने अप्रसन्नता से कहा- "तुम इस योग्य नहीं कि प्रधानमंत्री 
बनाए जा सको। क्योंकि तुम में खोट निकालने की आदत है। तुम 
भी नाकाबिल हो।" अब सामने थी चतुर लोमड़ी। उससे भी वही 
सवाल? लोमड़ी ने कहा- "क्या बताएं महाराज! अभी तो कुछ पता 
ही नहीं चल पा रहा है, क्योंकि मुझे तेज जुकाम है।" शेर उसकी 
चतुराई पर प्रसन्न हो गया और उसे प्रधानमंत्री बना दिया।

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