सदन से बड़ा कौन?

सदन से बड़ा कौन?


किसी भी राज्य में विधानसभा ही उस राज्य की जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च एवं पवित्रतम सभा होती है। इसे प्रदेश के सिर का मुकुट भी कहा जाए तो कम है। उसकी गरिमा बनाए रखना प्रत्येक सदस्य एवं आसन का दायित्व है। स्वयं आसन किसी दल का भाग नहीं होता।

घटना मध्य प्रदेश विधानसभा की है। वहां बजट सत्र चल रहा है। वित्त मंत्री राघव जी ने 28 फरवरी को सदन में घोषणा की थी कि राज्य सरकार इस बार बिजली पर पांच प्रतिशत वैट लगाएगी।

सरकार का अधिकार भी है। सदन में बहस के बाद अन्तिम निर्णय लिया जा सकता है। यह सामान्य प्रक्रिया है। आश्चर्यजनक रूप से कल के दैनिक भास्कर, भोपाल संस्करण में यह समाचार प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया कि हमारे वरिष्ठ सम्पादकों के दल के समक्ष मुख्यमंत्री ने इस आशय की घोषणा कर दी कि सरकार पांच प्रतिशत वैट वापस ले लेगी। इस घोषणा का श्रेय भी स्वयं समाचार पत्र के प्रयासों को ही दिया गया। शायद उनकी समझ में यही ठीक था। मुख्यमंत्री ने भी इसका खण्डन नहीं किया है।

कल बुधवार को, जब विधानसभा में विपक्ष के उपनेता चौधरी राकेश सिंह चतुर्वेदी ने यह मुद्दा उठाते हुए कहा कि विधानसभा में सरकार ने जो बजट पेश किया है, उसमें बिजली पर पांच प्रतिशत वैट लगाने की घोषणा भी की गई है। अब स्वयं मुख्यमंत्री सदन से बाहर उसे (5 प्रतिशत वैट को) हटाने की घोषणा कर आए हैं।

सदन अभी चल रहा है। घोषणा यदि करनी ही थी तो सदन में करनी चाहिए थी। बाहर घोषणा करना सदन की अवमानना है, असंसदीय, अमर्यादित है। विशेषाधिकार हनन के दायरे में आती है। बाहर घोषणा करके मुख्यमंत्री ने एक नई परम्परा की शुरूआत की है। जो लोकतंत्र के लिए घातक है।

बजट पर बहस अभी पूरी नहीं हुई है। किसी तरह का संशोधन विधेयक लाया नहीं गया है। बजट पारित नहीं हुआ है। ज्यादा से ज्यादा मुख्यमंत्री संशोधन का आश्वासन दे सकते थे। घोषणा कैसे कर दी! इस बारे में जब वित्त मंत्री राघवजी से सम्पर्क किया गया तो उनका कहना था कि पांच प्रतिशत वैट लगाने का फैसला मेरा नहीं, मंत्रिमण्डल का था। इसे हटाने के बारे में मुझसे किसी तरह की बात किसी की नहीं हुई। मेरे लिए तो वैट की यथास्थिति है।

अखबार की खबर का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है। उधर विधानसभा के अधिकारियों का भी दो टूक कहना है कि संसद हो या विधानसभा, परम्परा हर कानून से ऊपर होती है। इस तरह के मामलों में कि जब सदन का सत्र चालू हो, तब सदन के बाहर की गई हर एक घोषणा अवमानना की परिभाषा में आती है। मुख्यमंत्री को ऎसा नहीं करना चाहिए था। अवमानना का प्रकाशन भी अवमानना में भागीदारी ही है।

यहां दो बड़े प्रश्न उठ रहे हैं। एक शिवराज सिंह चौहान पिछले आठ साल से मुख्यमंत्री ही हैं। उनका संसदीय अनुभव तो 25 वर्षो से अधिक का रहा है। क्या उनको इतने साधारण नियम की भी जानकारी नहीं है? अथवा उन्होंने सदन के चलने को गंभीर ही नहीं माना? दोनों ही परिस्थितियां उनके अज्ञान एवं अहंकार की ही द्योतक हैं।

क्या वे सूर्योदय तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे? सदन की अवमानना कैसे कर दी? दूसरा बड़ा प्रश्न, सब कुछ जानते-समझते आसन क्यों उदारता बरत रहा है? यह तो इतना बड़ा अपराध है कि बिना सदन में उठाए भी अध्यक्ष अपने स्वविवेक से कार्रवाई कर सकते हैं। क्या उन सम्पादकों को अवमानना के अपराध में सदन में बुलाया जाएगा? क्या मुख्यमंत्री को दोषमुक्त किया जा सकता है? अब सबकी आंखें आसन पर टिकी हैं। बड़ा फैसला तो जनता ही जानती है।
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