| जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट गहरा रहा है, विकास के मौजूदा मॉडल पर पुनर्विचार की मांग जोर पकड़ती जा रही है। विकास के प्रचलित तौर-तरीकों में काफी प्रदूषण होता है और इसे सहन करने की हमारी धरती की सीमा आ चुकी है। इसलिए अब टिकाऊ विकास की बात हो रही है। यह मसला एक बार फिर ऊर्जा और संसाधन संस्थान की ओर से दिल्ली में आयोजित टिकाऊ विकास सम्मेलन में उठा है। इसमें फिनलैंड की राष्ट्रपति टारजा हैलोनेन और अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के पूर्व गवर्नर अर्नाल्ड श्वार्जनेगर सहित पर्यावरण के लिए काम करने वाले दुनिया के कई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हिस्सा ले रहे हैं। सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि एक विकासशील देश के रूप में हमारा बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले खतरों का मुकाबला करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का नियम-आधारित, बहुपक्षीय और न्यायसंगत तंत्र विकसित करने की जरूरत है। उनका संकेत साफ है कि समूचे विश्व को मिल कर इस चुनौती से निपटना होगा, साथ ही इसके तौर-तरीके ऐसे होने चाहिए जो भारत और उसके जैसे अन्य विकासशील देशों को अन्यायपूर्ण न लगें। दरअसल, इसी सिद्धांत पर क्योतो करार हुआ था और इसमें विकसित देशों पर अधिक जिम्मेदारी डाली गई। लेकिन डरबन जलवायु सम्मेलन में खुद भारत इस सिद्धांत पर दृढ़ नहीं रह सका। यह बात दूसरे बड़े विकासशील देशों पर भी लागू होती है। आखिरकार डरबन सम्मेलन एक निराकार सहमति के साथ संपन्न हुआ। कॉर्बन उत्सर्जन की बाबत नियम-कायदे तय करने का निर्णय 2020 तक के लिए टाल दिया गया। इस बीच किसकी क्या जिम्मेदारी होगी, यह फिलहाल तय नहीं है। बहरहाल, पर्यावरण का मसला ऐसा नहीं है कि इसे जलवायु वार्ताओं तक सीमित करके देखा जाए और यह मान कर चला जाए कि जब तक कोई बाध्यकारी वैश्विक समझौता नहीं होता, तब तक सब कुछ पहले की तरह चलता रह सकता है। अपने देश के लोगों की सेहत, खाद्य सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ियों की खातिर बचाए रखने के लिए भी विकास को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। सिर्फ उत्पादन वृद्धि या ऊर्जा की खपत को विकास का मानक मानने का नतीजा यह हुआ है कि आज अधिकतर देशों में पानी और हवा का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। भारत और चीन के नीति नियंता अपनी विकास दर का हवाला देकर फूले नहीं समाते, मगर इन दोनों देशों की ज्यादातर नदियां बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। पिछले दिनों सामने आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत की हवा दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। जाहिर है, लोगों की सेहत पर कैसा खतरा मंडरा रहा है। क्या इसे विकास के नाम पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? हवा और पानी में प्रदूषण बढ़ने के अलावा जमीन के नीचे पानी का भंडार लगातार छीज रहा है और धरती की उर्वरा-शक्ति भी कम होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण का संकट एक दिन खाद्य संकट में भी बदल सकता है। जब विकास की दिशा बदलने की मांग उठती है तो प्रचलित नीतियों के पैरवीकार इसे पसंद नहीं करते। उनकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो कुछ गंवाने के लिए कहा जा रहा है। जबकि टिकाऊ विकास का मतलब कुछ खोना नहीं है, बल्कि खोए हुए को भी पाने की कोशिश है। इसीलिए जल, जंगल, जमीन की रक्षा और प्रदूषण पर नियंत्रण पाने की नीतियां बनाई जाएं और ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधन विकसित किए जाएं। विकास दर और ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी को प्रगति का मानक मानना अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। लेकिन रियो सम्मेलन के दो दशक बाद भी जटरोफा उगाने यानी कारों के र्इंधन की खातिर खेती की जमीन के इस्तेमाल पर रोक नहीं लग पाई है। टिकाऊ विकास की नीति उन देशों के लिए और भी जरूरी है जो आबादी के लिहाज से बड़े हैं। समस्या यह है कि अभी तक इस पर सिर्फ जुबानी जमाखर्च हो रहा है। | | Last Updated on Friday, 10 February 2012 09:57 | | जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट गहरा रहा है, विकास के मौजूदा मॉडल पर पुनर्विचार की मांग जोर पकड़ती जा रही है। विकास के प्रचलित तौर-तरीकों में काफी प्रदूषण होता है और इसे सहन करने की हमारी धरती की सीमा आ चुकी है। इसलिए अब टिकाऊ विकास की बात हो रही है। यह मसला एक बार फिर ऊर्जा और संसाधन संस्थान की ओर से दिल्ली में आयोजित टिकाऊ विकास सम्मेलन में उठा है। इसमें फिनलैंड की राष्ट्रपति टारजा हैलोनेन और अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के पूर्व गवर्नर अर्नाल्ड श्वार्जनेगर सहित पर्यावरण के लिए काम करने वाले दुनिया के कई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हिस्सा ले रहे हैं। सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि एक विकासशील देश के रूप में हमारा बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले खतरों का मुकाबला करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का नियम-आधारित, बहुपक्षीय और न्यायसंगत तंत्र विकसित करने की जरूरत है। उनका संकेत साफ है कि समूचे विश्व को मिल कर इस चुनौती से निपटना होगा, साथ ही इसके तौर-तरीके ऐसे होने चाहिए जो भारत और उसके जैसे अन्य विकासशील देशों को अन्यायपूर्ण न लगें। दरअसल, इसी सिद्धांत पर क्योतो करार हुआ था और इसमें विकसित देशों पर अधिक जिम्मेदारी डाली गई। लेकिन डरबन जलवायु सम्मेलन में खुद भारत इस सिद्धांत पर दृढ़ नहीं रह सका। यह बात दूसरे बड़े विकासशील देशों पर भी लागू होती है। आखिरकार डरबन सम्मेलन एक निराकार सहमति के साथ संपन्न हुआ। कॉर्बन उत्सर्जन की बाबत नियम-कायदे तय करने का निर्णय 2020 तक के लिए टाल दिया गया। इस बीच किसकी क्या जिम्मेदारी होगी, यह फिलहाल तय नहीं है। बहरहाल, पर्यावरण का मसला ऐसा नहीं है कि इसे जलवायु वार्ताओं तक सीमित करके देखा जाए और यह मान कर चला जाए कि जब तक कोई बाध्यकारी वैश्विक समझौता नहीं होता, तब तक सब कुछ पहले की तरह चलता रह सकता है। अपने देश के लोगों की सेहत, खाद्य सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ियों की खातिर बचाए रखने के लिए भी विकास को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। सिर्फ उत्पादन वृद्धि या ऊर्जा की खपत को विकास का मानक मानने का नतीजा यह हुआ है कि आज अधिकतर देशों में पानी और हवा का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। भारत और चीन के नीति नियंता अपनी विकास दर का हवाला देकर फूले नहीं समाते, मगर इन दोनों देशों की ज्यादातर नदियां बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। पिछले दिनों सामने आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत की हवा दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। जाहिर है, लोगों की सेहत पर कैसा खतरा मंडरा रहा है। क्या इसे विकास के नाम पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? हवा और पानी में प्रदूषण बढ़ने के अलावा जमीन के नीचे पानी का भंडार लगातार छीज रहा है और धरती की उर्वरा-शक्ति भी कम होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण का संकट एक दिन खाद्य संकट में भी बदल सकता है। जब विकास की दिशा बदलने की मांग उठती है तो प्रचलित नीतियों के पैरवीकार इसे पसंद नहीं करते। उनकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो कुछ गंवाने के लिए कहा जा रहा है। जबकि टिकाऊ विकास का मतलब कुछ खोना नहीं है, बल्कि खोए हुए को भी पाने की कोशिश है। इसीलिए जल, जंगल, जमीन की रक्षा और प्रदूषण पर नियंत्रण पाने की नीतियां बनाई जाएं और ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधन विकसित किए जाएं। विकास दर और ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी को प्रगति का मानक मानना अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। लेकिन रियो सम्मेलन के दो दशक बाद भी जटरोफा उगाने यानी कारों के र्इंधन की खातिर खेती की जमीन के इस्तेमाल पर रोक नहीं लग पाई है। टिकाऊ विकास की नीति उन देशों के लिए और भी जरूरी है जो आबादी के लिहाज से बड़े हैं। समस्या यह है कि अभी तक इस पर सिर्फ जुबानी जमाखर्च हो रहा है। | | Last Updated on Friday, 10 February 2012 09:57 | विकास के मानक | जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट गहरा रहा है, विकास के मौजूदा मॉडल पर पुनर्विचार की मांग जोर पकड़ती जा रही है। विकास के प्रचलित तौर-तरीकों में काफी प्रदूषण होता है और इसे सहन करने की हमारी धरती की सीमा आ चुकी है। इसलिए अब टिकाऊ विकास की बात हो रही है। यह मसला एक बार फिर ऊर्जा और संसाधन संस्थान की ओर से दिल्ली में आयोजित टिकाऊ विकास सम्मेलन में उठा है। इसमें फिनलैंड की राष्ट्रपति टारजा हैलोनेन और अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के पूर्व गवर्नर अर्नाल्ड श्वार्जनेगर सहित पर्यावरण के लिए काम करने वाले दुनिया के कई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हिस्सा ले रहे हैं। सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि एक विकासशील देश के रूप में हमारा बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले खतरों का मुकाबला करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का नियम-आधारित, बहुपक्षीय और न्यायसंगत तंत्र विकसित करने की जरूरत है। उनका संकेत साफ है कि समूचे विश्व को मिल कर इस चुनौती से निपटना होगा, साथ ही इसके तौर-तरीके ऐसे होने चाहिए जो भारत और उसके जैसे अन्य विकासशील देशों को अन्यायपूर्ण न लगें। दरअसल, इसी सिद्धांत पर क्योतो करार हुआ था और इसमें विकसित देशों पर अधिक जिम्मेदारी डाली गई। लेकिन डरबन जलवायु सम्मेलन में खुद भारत इस सिद्धांत पर दृढ़ नहीं रह सका। यह बात दूसरे बड़े विकासशील देशों पर भी लागू होती है। आखिरकार डरबन सम्मेलन एक निराकार सहमति के साथ संपन्न हुआ। कॉर्बन उत्सर्जन की बाबत नियम-कायदे तय करने का निर्णय 2020 तक के लिए टाल दिया गया। इस बीच किसकी क्या जिम्मेदारी होगी, यह फिलहाल तय नहीं है। बहरहाल, पर्यावरण का मसला ऐसा नहीं है कि इसे जलवायु वार्ताओं तक सीमित करके देखा जाए और यह मान कर चला जाए कि जब तक कोई बाध्यकारी वैश्विक समझौता नहीं होता, तब तक सब कुछ पहले की तरह चलता रह सकता है। अपने देश के लोगों की सेहत, खाद्य सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ियों की खातिर बचाए रखने के लिए भी विकास को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। सिर्फ उत्पादन वृद्धि या ऊर्जा की खपत को विकास का मानक मानने का नतीजा यह हुआ है कि आज अधिकतर देशों में पानी और हवा का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। भारत और चीन के नीति नियंता अपनी विकास दर का हवाला देकर फूले नहीं समाते, मगर इन दोनों देशों की ज्यादातर नदियां बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। पिछले दिनों सामने आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत की हवा दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। जाहिर है, लोगों की सेहत पर कैसा खतरा मंडरा रहा है। क्या इसे विकास के नाम पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? हवा और पानी में प्रदूषण बढ़ने के अलावा जमीन के नीचे पानी का भंडार लगातार छीज रहा है और धरती की उर्वरा-शक्ति भी कम होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण का संकट एक दिन खाद्य संकट में भी बदल सकता है। जब विकास की दिशा बदलने की मांग उठती है तो प्रचलित नीतियों के पैरवीकार इसे पसंद नहीं करते। उनकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो कुछ गंवाने के लिए कहा जा रहा है। जबकि टिकाऊ विकास का मतलब कुछ खोना नहीं है, बल्कि खोए हुए को भी पाने की कोशिश है। इसीलिए जल, जंगल, जमीन की रक्षा और प्रदूषण पर नियंत्रण पाने की नीतियां बनाई जाएं और ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधन विकसित किए जाएं। विकास दर और ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी को प्रगति का मानक मानना अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। लेकिन रियो सम्मेलन के दो दशक बाद भी जटरोफा उगाने यानी कारों के र्इंधन की खातिर खेती की जमीन के इस्तेमाल पर रोक नहीं लग पाई है। टिकाऊ विकास की नीति उन देशों के लिए और भी जरूरी है जो आबादी के लिहाज से बड़े हैं। समस्या यह है कि अभी तक इस पर सिर्फ जुबानी जमाखर्च हो रहा है। | | Last Updated on Friday, 10 February 2012 09:57 | जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट गहरा रहा है, विकास के मौजूदा मॉडल पर पुनर्विचार की मांग जोर पकड़ती जा रही है। विकास के प्रचलित तौर-तरीकों में काफी प्रदूषण होता है और इसे सहन करने की हमारी धरती की सीमा आ चुकी है। इसलिए अब टिकाऊ विकास की बात हो रही है। यह मसला एक बार फिर ऊर्जा और संसाधन संस्थान की ओर से दिल्ली में आयोजित टिकाऊ विकास सम्मेलन में उठा है। इसमें फिनलैंड की राष्ट्रपति टारजा हैलोनेन और अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत के पूर्व गवर्नर अर्नाल्ड श्वार्जनेगर सहित पर्यावरण के लिए काम करने वाले दुनिया के कई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हिस्सा ले रहे हैं। सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि एक विकासशील देश के रूप में हमारा बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और इसके फलस्वरूप पैदा होने वाले खतरों का मुकाबला करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती का नियम-आधारित, बहुपक्षीय और न्यायसंगत तंत्र विकसित करने की जरूरत है। उनका संकेत साफ है कि समूचे विश्व को मिल कर इस चुनौती से निपटना होगा, साथ ही इसके तौर-तरीके ऐसे होने चाहिए जो भारत और उसके जैसे अन्य विकासशील देशों को अन्यायपूर्ण न लगें। दरअसल, इसी सिद्धांत पर क्योतो करार हुआ था और इसमें विकसित देशों पर अधिक जिम्मेदारी डाली गई। लेकिन डरबन जलवायु सम्मेलन में खुद भारत इस सिद्धांत पर दृढ़ नहीं रह सका। यह बात दूसरे बड़े विकासशील देशों पर भी लागू होती है। आखिरकार डरबन सम्मेलन एक निराकार सहमति के साथ संपन्न हुआ। कॉर्बन उत्सर्जन की बाबत नियम-कायदे तय करने का निर्णय 2020 तक के लिए टाल दिया गया। इस बीच किसकी क्या जिम्मेदारी होगी, यह फिलहाल तय नहीं है। बहरहाल, पर्यावरण का मसला ऐसा नहीं है कि इसे जलवायु वार्ताओं तक सीमित करके देखा जाए और यह मान कर चला जाए कि जब तक कोई बाध्यकारी वैश्विक समझौता नहीं होता, तब तक सब कुछ पहले की तरह चलता रह सकता है। अपने देश के लोगों की सेहत, खाद्य सुरक्षा और प्राकृतिक संसाधनों को आने वाली पीढ़ियों की खातिर बचाए रखने के लिए भी विकास को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। सिर्फ उत्पादन वृद्धि या ऊर्जा की खपत को विकास का मानक मानने का नतीजा यह हुआ है कि आज अधिकतर देशों में पानी और हवा का प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। भारत और चीन के नीति नियंता अपनी विकास दर का हवाला देकर फूले नहीं समाते, मगर इन दोनों देशों की ज्यादातर नदियां बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। पिछले दिनों सामने आए एक अध्ययन के मुताबिक भारत की हवा दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित है। जाहिर है, लोगों की सेहत पर कैसा खतरा मंडरा रहा है। क्या इसे विकास के नाम पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? हवा और पानी में प्रदूषण बढ़ने के अलावा जमीन के नीचे पानी का भंडार लगातार छीज रहा है और धरती की उर्वरा-शक्ति भी कम होती जा रही है। ऐसे में पर्यावरण का संकट एक दिन खाद्य संकट में भी बदल सकता है। जब विकास की दिशा बदलने की मांग उठती है तो प्रचलित नीतियों के पैरवीकार इसे पसंद नहीं करते। उनकी प्रतिक्रिया ऐसी होती है मानो कुछ गंवाने के लिए कहा जा रहा है। जबकि टिकाऊ विकास का मतलब कुछ खोना नहीं है, बल्कि खोए हुए को भी पाने की कोशिश है। इसीलिए जल, जंगल, जमीन की रक्षा और प्रदूषण पर नियंत्रण पाने की नीतियां बनाई जाएं और ऊर्जा के वैकल्पिक संसाधन विकसित किए जाएं। विकास दर और ऊर्जा की खपत में बढ़ोतरी को प्रगति का मानक मानना अब प्रासंगिक नहीं रह गया है। लेकिन रियो सम्मेलन के दो दशक बाद भी जटरोफा उगाने यानी कारों के र्इंधन की खातिर खेती की जमीन के इस्तेमाल पर रोक नहीं लग पाई है। टिकाऊ विकास की नीति उन देशों के लिए और भी जरूरी है जो आबादी के लिहाज से बड़े हैं। समस्या यह है कि अभी तक इस पर सिर्फ जुबानी जमाखर्च हो रहा है। |
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