यातना के स्कूल अगर स्कूल में बच्चों को शिक्षक यह कहते रहें कि वे पढ़ने के काबिल नहीं हैं, तो कोमल मन-मस्तिष्क वाले मासूमों पर कैसा असर पड़ेगा, इसका उत्तर शायद सभी जानते हैं। लेकिन राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग का सर्वेक्षण बताता है कि स्कूलों में अस्सी फीसद बच्चे ऐसी ही अपमानजनक टिप्पणियां सुनते रहते हैं। शिक्षकों के हाथ में आने वाली पीढ़ी का भविष्य होता है। मगर वे उसे संवारने पर अपेक्षित ध्यान देने के बजाय बच्चों को एक भय की मन:स्थिति में झोंक कर उन्हें अपनी परिस्थितियों के प्रति उदासीन और संवेदनहीन हो जाने की भूमिका तैयार कर देते हैं। सात राज्यों में कराए गए सर्वेक्षण में ज्यादातर बच्चों का कहना था कि उनके शिक्षक उन्हें पढ़ने-लिखने लायक नहीं मानते हैं और अक्सर उन्हें अपात्र ठहरा कर उनका बहिष्कार करते हैं। ताने सुनने के अलावा उन्हें तरह-तरह की सजा मिलना भी आम बात है। सर्वे के मुताबिक बच्चों को गाल पर तमाचा मारना, बेंत से पिटाई करना और कान उमेठना शिक्षकों ने मानो अपनी ड्यूटी का हिस्सा मान लिया है। एक अहम तथ्य यह है कि सरकारी स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूलों में ऐसे वाकये अधिक होते हैं। बच्चों के बौद्धिक-मानसिक विकास के लिए शिक्षक जिम्मेदार होता है। घर-परिवार या समाज के साथ-साथ स्कूल में मिला व्यवहार बच्चों के समूचे व्यक्तित्व को गढ़ता है। लेकिन इससे लापरवाह ज्यादातर शिक्षक मामूली-सी बात पर भी डांट-फटकार या पिटाई को समस्या का हल मान लेते हैं। अच्छा बर्ताव किसी पीछे रह जाने वाले बच्चे में भी आगे बढ़ने का माद्दा पैदा कर सकता है। इसके उलट निर्मम तरीके से पेश आना उनमें छिपी संभावनाओं को बाधित कर दे सकता है। अगर किसी सामान्य बच्चे को भी लगातार अक्षम या नाकाबिल कहा जाता है तो वह धीरे-धीरे पिछड़ जाएगा। यह एक सामान्य मनोवैज्ञानिक सच है, जिसका बोध हर शिक्षक को होना चाहिए। इसके अभाव में कोई भी शिक्षक अपने लिए निर्धारित कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता। अगर कोई शिक्षक बच्चों को अपमानित करता है या उनके साथ हिंसक बर्ताव करता है तो उसकी शैक्षणिक क्षमता पर सवाल उठाए जाने चाहिए। यह अकारण नहीं है कि पांचवीं या छठी कक्षा में पढ़ने वाले कई बच्चे दूसरी या तीसरी कक्षा की किताब भी ठीक से नहीं पढ़ पाते, जैसा कि स्वयंसेवी संगठन 'प्रथम' के हर साल आने वाले सर्वेक्षणों से जाहिर होता है। हमारे समाज में सामाजिक अन्याय की जड़ें इतनी गहरी हैं कि समाज से लेकर स्कूल तक में होने वाले दुर्व्यवहारों के पीछे कई बार यह कारक भी चुपचाप अपनी भूमिका निभाता रहता है। कई शिक्षकों का रूखा व्यवहार कभी-कभी क्रूरता की हद तक चला जाता है। इसके पीछे उनके मन की गांठें भी होती होंगी। लेकिन उनके प्रशिक्षण का क्या अर्थ रह जाता है, अगर वे जाने-अनजाने स्कूल को अपनी कुंठा निकालने की जगह मान बैठते हैं और बच्चों के उत्पीड़न से भी बाज नहीं आते। यह स्थिति तब है, जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से लेकर सरकारी दिशा-निर्देशों में यह कई बार साफ किया जा चुका है कि किसी भी हाल में स्कूल में बच्चों की पिटाई न केवल अनुचित बल्कि गैरकानूनी भी है। बाल अधिकार संरक्षण आयोग के सर्वेक्षण के मद्देनजर शिकायतों की सुनवाई के लिए एक तंत्र गठित करने पर राज्य सरकारों को विचार करना चाहिए।
उदयपुर। शिक्षा से वंचित बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने का जिम्मा पंच और पार्षदों का भी है, लेकिन इस जिम्मेदारी का वर्णन स्पष्ट रूप से नहीं होने के कारण अब तक यह जागरूकता नहीं आई है। शिक्षा का अधिकार कानून की धारा-8 में समुचित सरकार और स्थानीय प्राधिकारी को राज्य सरकार के बनाए नियमों में स्पष्ट परिभाषित नहीं करने से जनप्रतिनिधि इसका हिस्सा नहीं बन पाए हैं। जानकार कहते हैं कि कानून की धारा-8 की यही भावना है कि वार्ड पंच हो या शहर के पार्षद, वह समुचित सरकार का हिस्सा हैं और उनके निर्वाचन क्षेत्र में वंचित बच्चों की सूची उनके ध्यान में रहनी चाहिए। यही कारण है कि कानून में ग्राम बाल संरक्षण समिति के गठन की बात कही गई है। यदि सूची उनके पास होगी और सार्वजनिक रूप से चस्पा की जाएगी तो वंचित बच्चों को लाभ मिल सकेगा। राज्य सरकार की ओर से बनाए गए नियमों में राज्य सरकार और स्थानीय प्राधिकारी के कर्तव्य और उत्तरदायित्व दर्शाए तो गए हैं, लेकिन स्थानीय प्राधिकारी को परिभाषित नहीं किया गया है। ऎसे में स्थानीय प्राधिकारी को सरकारी अधिकारी के रूप में ही समझा जा रहा है। यही कारण है कि अब तक शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करने में जनप्रतिनिधियों का सहयोग दूर है। जनप्रतिनिधि निभाएं भूमिका एक्ट के मुताबिक शिक्षा का अधिकार हर बच्चे तक पहुंचाने के लिए सरपंच, वार्ड पंच, पार्षद आदि जनप्रतिनिधियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। |
यातना के स्कूल
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