समाज का चिंता समारोह

समाज का चिंता समारोह
सभ्य समाज या सिविल सोसायटी के बीच जब भी बात चलती है तो आपस में अपेक्षा की जाती है कि हमें सक्रिय होना चाहिए। बहस में यह भी सामान्य निष्कर्ष निकाला जाता है कि सज्जन शक्ति को संगठित होना चाहिए। यह बात भी उठाई जाती है कि हमें जनजागरण करना होगा। हमें लोगों के बीच जाना चाहिए आदि-आदि और नागरिक समाज का चेतना चिंता समारोह अगली बैठक तक के लिए बिखर जाता है। नागरिक समाज के समूहों में एकाएक चेतना का ज्वार आता है और बैठक के अंत तक वह इस बात पर ही आंसू बहाता रहता है कि हमें संगठित एवं सक्रिय होना ही होगा। पर यह कैसे होगा, यह किसी को स्पष्टत: नहीं सूझता। ऎसी अंतहीन बातों से आज तक सभ्य समाज की गाड़ी रूकी हुई है। बुद्धि की शक्ति की इससे बड़ी फजीहत स्वयं बुद्धिवादियों के हाथों की संभव नहीं है।

आप स्वयं ही यह निष्कर्ष निकालते हैं कि हमें सक्रिय होना होगा पर आप स्वयं यह नहीं मानते कि हम खुद ही निरंतर निष्क्रिय बने हुए हैं। हम सबका दिमाग तो चलता है पर शरीर स्थिर रहता है, वह घर की बैठक से लेकर सभा, सम्मेलन या समारोहों से बाहर नहीं निकलता। आज के काल में सम्पन्नता के कारण एक नई नागरिक सभ्यता उठ खड़ी हुई है। दिन-प्रतिदिन निरंतर फैलते जा रहे शहरों में नागरिक या सभ्य समाज के लोग बिना वाहन के चलना ही भूलते जा रहे हैं। कभी कोई सभ्य समाज का सदस्य पैदल चलता दिख भी जाए तो उसे ऎसे घूरकर देखते हैं मानो उसने नागरिक असभ्यता का कृत्य कर दिया हो। सुबह घूमने भी जाता हो तो वाहन से ही जाएंगे, कहीं कोई उन्हें पैदल चलता न देख ले। अरे, देखो ये कितने असभ्य युग में हैं कि पैदल ही जा रहे हैं। यंत्र आधारित जीवनशैली नागरिक सभ्य समाज का आभूषण बन गया है। यंत्र के बिना जीवन में गति नहीं है। इस पर नागरिक समाज में इतनी बड़ी सर्वसम्मति खड़ी हो गई कि शहरों की सड़कों और गली-कूचों में जहां देखो वहां नागरिक के दर्शन कम और वाहनों का प्रदर्शन अधिक दिखाई देता है। कहीं कोई जगह ही नहीं है कि हम सहजता से चल, फिर और जी सकें।

यंत्र आधारित जीवन शैली की सभ्यता के विस्तार का सीधा नतीजा यह है कि समूचे नागरिक समाज की सज्जन शक्ति ट्रैफिक जाम में फंसी हुई निरंतर हार्न बजा रही है और उसकी आवाज से खुद ही परेशान है कि अरे कब से हार्न दे रहा हूं पर आगे वाला बढ़ता ही नहीं। सभ्य समाज के सामने अपने आगे की कार को गतिमान करने का एक ही विकल्प उपलब्ध है कि निरंतर हार्न बजाओ तो कभी तो आगे वाला बढ़ेगा। हार्न बजाते समय हमें यह बात समझ नहीं आती कि विकसित शहर में आगे वाला भी हमारी तरह ट्रैफिक जाम में फंसा हुआ है। पूरी सिविल सोसायटी की दिक्कत भी यही है कि वह स्वयं तो निष्क्रियता के महासागर में फंसी हुई है और निरंतर दूसरे को सक्रिय करने का हार्न बजा रही है। हमारे काल की समस्या यह है कि हम आज के काल में हर किसी के आचरण, जीवन को तो समस्या मान सुधारना चाहते हैं पर स्वयं अपने जीवन की शैली और आचरण को न तो देखते हैं और न ही व्यवस्था बदलने का पहला कदम अपने आचरण या जीवन को मानते हैं।

यह एकदम सीधी बात है कि हमारा आचरण एवं जीवन ही व्यवस्था को समूचे रूप से बदल सकता है या जस का तस बनाए रखता है। कोई भी समाज चाहे वह सभ्य हो या असभ्य वह उपदेश से नहीं आचरण से ही बदलता आया है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक जो बदलाव हुआ है, वह मनुष्य की जीवन शैली में आए निरंतर आचरणगत बदलाव से ही आया है। आज हम स्वयं अपने मन एवं शरीर से अपने जीवन को संचालित करने के बजाय विभिन्न अंगों की मदद से अपनी जिंदगी को चलाने में लगे हैं। यंत्रों की सभ्यता के उदयकाल में आज की सिविल सोसायटी जाने अनजाने यंत्र आधारित नागरिक सक्रियता की सभ्यता का पर्याय बन रही है। मनुष्य समाज में नागरिक स्थिर और यंत्रों की हलचल और कोलाहल निरंतर गतिशील है।

ये दाग नहीं धुलेंगे

इंदौर के पास बेटमा में दो युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना से पूरा समाज शर्मसार है। घटना के कारण, पुलिस की लापरवाही अलग विषय हैं, चिंता की बात यह है कि 18 आरोपियों में से ज्यादातर की उम्र 16 से 20 के बीच है और वे स्कूली छात्र हैं।

स्कूल में पढ़ने वाले छात्र अगर सामूहिक दुष्कर्म का षड्यंत्र रच रहे हैं तो यह समाज के लिए गंभीर विषय है। नि:संदेह किसी भी घटना या वारदात को अंजाम देने वाले आरोपी के माता-पिता, अभिभावक उसके लिए जिम्मेदार नहीं होते, कोई अपने बच्चे को ऎसा करने की शिक्षा भी नहीं देता, मगर अब कुछ बातें ऎसी हैं जिन पर पूरे समाज को समग्र रूप से मंथन करने की जरूरत है। मसलन, बच्चे ये सब कहां से सीख रहे हैं, वे गलत कामों की तरफ तेजी से क्यों मुड़ रहे हैं, क्यों उन्हें समाज में रहने के कानून-कायदे नहीं समझाए जा रहे। यह तथ्य सर्वविदित है कि किशोरावस्था मानव विकास क्रम में एक बेहद संवेदनशील अवस्था है। युवा अवस्था की तरफ बढ़ते कदम मन को बहुत जल्दी विचलित करते हैं। इस दौर में गलत बातें जल्दी सीखी जाती हैं, जबकि अच्छी बातें कई बार नजरअंदाज कर दी जाती हैं।

बेटमा में जिन लोगों ने यह कृत्य किया वे इसी दौर से गुजर रहे हैं। हिंसक फिल्म व टीवी धारावाहिक उनकी प्रेरणा है। जिस तरह उन्होंने घटना को अंजाम दिया है, उससे साफ है कि समाज उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दे पाया, लेकिन फिल्मों से उन्होंने गलत बातों को बहुत जल्दी सीख लिया। सिर्फ इस घटना की बात नहीं, इससे पहले भी कई आपराधिक घटनाएं ऎसी हुई हैं, जिनमें आरोपी 15-16 साल के बच्चे निकले। उन्होंने महंगे मोबाइल, घड़ी, मोटरसाइकिल की चाहत में चोरी, लूट की वारदातें कर डाली। हमारे लिए ये संभलने का वक्त है। सबसे पहली जिम्मेदारी माता-पिता की ही है, क्योंकि संस्कार की पाठशाला घर से शुरू होती है। अभिभावक बच्चों की जिद पूरी करने में कहीं उन्हें उद्दंड और अपराधी तो नहीं बना रहे, इसको लेकर सतर्क होना पड़ेगा। उनके दोस्त, शौक पर नजर रखना पड़ेगी।

No comments:

Post a Comment