दवा की दरकार

दवा की दरकार
सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में जरूरी चिकित्सीय सुविधाओं और मुफ्त वितरित की जाने वाली दवाओं के अभाव की शिकायतें आम हैं। इन्हें दूर करने के इरादे तो बहुत जताए जाते हैं, मगर कारगर कदम न उठाए जा पाने के कारण स्थिति जस की तस बनी रहती है। यही वजह है कि ज्यादातर लोगों को निजी अस्पतालों का रुख करना और महंगे इलाज के लिए मजबूर होना पड़ता है। जबकि  राज्य सरकारें इस दिशा में संजीदगी दिखाएं तो सरकारी अस्पतालों पर लोगों का भरोसा बहाल करना मुश्किल नहीं है। इस मामले में राजस्थान सरकार की पहल एक मिसाल कही जा सकती है। पिछले साल अक्तूबर में गहलोत सरकार ने राज्य के सभी सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों पर तीन सौ पचासी जीवनरक्षक दवाओं के मुफ्त वितरण का कार्यक्रम शुरू किया। इस कार्यक्रम की कामयाबी का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इस अवधि में सरकारी अस्पतालों में आने वालों की तादाद करीब चालीस फीसद बढ़ गई है। हर दिन करीब दो लाख लोगों को मुफ्त दवाएं वितरित की जाती हैं। इससे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को काफी मदद मिल रही है। जाहिर है, दूसरे सरकारी कार्यक्रमों की तरह इसे शुरू करके अपने हाल पर नहीं छोड़ दिया गया। इसे सफल बनाने के लिए लगातार प्रयास किया जा रहा है। यों राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, जननी सुरक्षा, गरीबों के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसी योजनाएं देश भर में चलाई जा रही हैं, मगर अपेक्षित नतीजे नहीं आ पा रहे तो उसके पीछे राज्य सरकारों में संजीदगी की कमी सबसे बड़ी वजह है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के करीब अस्सी करोड़ यानी कुल आबादी के दो तिहाई लोगों तक आवश्यक दवाओं की पहुंच सुनिश्चित नहीं हो पाती। इसके अलावा इलाज पर आने वाले खर्च की वजह से हर साल करीब दो करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। क्योंकि बहुत सारे लोगों को सामान्य रूप से ठीक हो सकने वाले रोगों से निजात पाने के लिए भी जमीन-जायदाद बेचनी या गिरवी रखनी पड़ती है। तमाम स्वास्थ्य कार्यक्रमों के बावजूद देश में तीन साल तक की उम्र के करीब छियालीस फीसद बच्चे और पंद्रह से उनचास साल के  बीच की करीब छत्तीस फीसद महिलाएं कुपोषण, रक्ताल्पता आदि की शिकार हैं। वहीं जीवनशैली और पर्यावरण में बदलाव के चलते पैदा होने वाली बीमारियों पर काबू पाना लगातार मुश्किल होता गया है। यह स्थिति सरकार के लिए चेतावनी होनी चाहिए। मगर समय-समय पर ऐसी रिपोर्टों के आते रहने के बावजूद हमारी सरकारों के कान पर जूं नहीं रेंगती। गरीबों को ध्यान में रख कर चलाई गई स्वास्थ्य योजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। अस्पतालों में मुफ्त वितरित की जाने वाली दवाओं की खरीद में धांधली होती है। बच्चों को जरूरी प्रतिरोधक टीके नहीं लगाए जा पाते। टीकाकरण के सारे कार्यक्रम लक्ष्य से पीछे चलते रहते हैं। जब पूर्वी उत्तर प्रदेश से दिमागी बुखार से लोगों के मरने या पश्चिम बंगाल के अस्पतालों से शिशुओं की मौत जैसी खबरें आती हैं, तब सरकारी चिकित्सा व्यवस्था की दुर्दशा जरूर चर्चा का विषय बनती है। फिर सब कुछ भुला दिया जाता है। जबकि इस तरह की बड़ी त्रासदी भी सरकारी अस्पतालों में व्याप्त संवेदनहीनता और उपेक्षा का नतीजा होती है। '
HTML clipboard 

No comments:

Post a Comment