पर्यावरण संरक्षण की अलख जगाएं

पर्यावरण, ईश्वर द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य उपहार है जो संपूर्ण मानव समाज का महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य भौतिक तत्वों – पृथ्वी, जल, आकाश, वायु एवं अग्नि से मिलकर पर्यावरण का निर्माण हुआ हैं। यदि मानव समाज प्रकृति के नियमों का भलीभाँति अनुसरण करें तो उसे कभी भी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं में कमी नहीं रहेगी। मनुष्य अपनी आकश्यकताओं की पूर्ति के लिए वायु, जल, मिट्टी, पेड-पौधों, जीव-जन्तुओं आदि पर निर्भर हैं और इनका दोहन करता आ रहा हैं।

वर्तमान युग औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण का युग है। जहाँ आज हर काम को सुगम और सरल बनाने के लिए मशीनों का उपयोग होने लगा हैं, वहीं पर्यावरण का उल्लंघन भी हो रहा हैं। ना ही पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दिया जा रहा है और ना ही प्रकृति द्वारा प्रदत्त एक अमूल्य तत्वों का सही मायने में उपयोग किया जा रहा हैं, परिणामस्वरूप प्रकृति कई आपदाओं का शिकार होती जा रही हैं।

वर्तमान समय में मनुष्य औद्योगिकीकरण और नगरीकरण में इस तरह से गुम हो चुका हैं कि वह स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकृति का अत्यधिक दोहन करने लगा है और पर्यावरण को असंतुलित बनाए हुए हैं। परिणाम स्वरूप मनुष्य को प्रदूषण, बाढ़, सूखा आदि आपदाओं का सामना करना पड़ता हैं। यदि मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य तत्वों की श्रृंखला का सुरक्षित तरीके से उपभोग करे तो पर्यावरण को संरक्षित रखा जा सकता हैं।

औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण के युग में प्रकृति पर अत्याचार होने लगा है, परिणामस्वरूप पर्यावरण में प्रदूषण, अशुद्ध वायु, जल की कमी, बीमारियों की भरमार दिन-प्रतिदिन एक गंभीर चर्चा का विषय बनी हुई हैं, जिससे न तो मनुष्य प्रकृति को बचा पा रहा हैं और न ही खुद को । आज जहाँ मानव समाज विलासितापूर्ण जीवन की चाह लिए हुए प्रकृति का अति दोहन करता जा रहा हैं, वहीं वह अज्ञानतावश स्वयं की जान का भी दुश्मन बन चुका हैं।

पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों का सबसे अधिक महत्व हैं। जिस तरह आज औद्योगिकीकरण के युग में वृक्षों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, वहाँ आज समाजसेवी संस्थाओं को जन-चेतना को जागृत और प्रोत्साहित करते हुए वृक्षारोपण को एक अनिवार्य गतिविधि बना देना चाहिए, ताकि मनुष्य अपनी विलासिताओं के लोभ में पर्यावरण का दुरूपयोग न कर सकें।

मानव की घोर भौतिकतावादी प्रवृत्ति, तीव्र औद्योगिकरण, प्राकृतिक संसाधनों का क्रूरतापूर्ण दोहन तथा उपभोक्तावादी संस्कृति ने प्रकृति की मूल संरचना और व्यवस्था में असंतुलन पैदा कर दिया है। जिसके प्रकारों, कारणों एवं प्रभावों का वर्णन निम्नलिखित है।
प्रकार-
1. वायु प्रदूषण :- वायु में अवांछित तत्वों के प्रवेश के फलस्वरूप वायु प्रदूषण एक खतरनाक हद को पार करता जा रहा है। मोटर वाहनों, औद्योगिक संयंत्र, घरों के चूल्हों का धुआ, सी. एफ.सी. का अंधाधुंध प्रयोग इसका प्रमुख कारण है फलस्वरूप  कार्बन डाई-ऑक्साइड , कार्बन मोनो-ऑक्साइड, सल्फर डाई ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों के बढने की संभावना बढ  गयी है।

2. जल- प्रदूषण :- अंधाधुंध औद्योगिकरण के कारण इनसे निकला गंदा जल नदियों में प्रवाहित करने, तेल प्रदूषण के फलस्वरूप जलीय जीवों को खतरा, मियादी बुखार, पेचिस, पीलिया, मलेरिया, हैजा जैसे रोग मुंह बाये खड़े हैं।
3.ध्वनि प्रदूषण :- वाहनों, कारखानों , विमानों, पॉप संगीत एवं फटाकों का शोर बहरा कर देने को उद्यत है। एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार -"ध्वनि प्रदूषण के कारण महानगरों के 10 प्रतिशत लोग मन को संकेन्द्रित नहीं कर पाते, 70 प्रतिशत लोग अपने को अशांत महसूस करते हैं तथा 66 प्रतिशत लोग तनाव एवं बेचैनी महसूस करते हैं।
4. भूमि प्रदूषण :- भूमि भी प्रदूषित हो चुकी है जिससे फसलें एवं उर्बरा शक्ति प्रभावित हो रही है। रासायनिक अपशिष्ट, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, पॉलीथीन, डिटजेंट , वृक्षों की कटाई, परमाणु विस्फोट आदि से भूमि प्रदूषित हो चुकी है।
5. अंतरिक्ष प्रदूषण :- अंतरिक्ष में 500 कृत्रिम उपग्रह चक्कर काट रहे हैं जिनसे रेडियोधर्मी पदार्थों के विकिरण का खतरा बना हुआ है।
समाधान :-
1. वृक्षारोपण एवं वनों का विनाश रोकना ।
2.जैविक खाद का प्रयोग ।
3.प्रदूषण फैलाने वाले कारकों पर प्रभावी नियंत्रण ।
4. नदियों में अपशिस्ट पदार्थों के प्रवाह पर रोक।
5. जनजागरूकता अभियान ।
6.कानूनों का कठोरता एवं ईमानदारी से पालन हो |





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