| इंसाफ की ओर अगर मानवाधिकारों का हनन होता हो, तो कोई भी व्यवस्था न लोकतांत्रिक कही जा सकती है न न्यायसंगत। इसलिए उच्चतम न्यायालय ने उचित ही समय-समय पर फर्जी मुठभेड़ की घटनाओं को गंभीरता से लिया है। पथरीबल मामले में उसका फैसला इसी सिलसिले की ताजा कड़ी है। इस फैसले ने आरोपियों को न्यायिक प्रक्रिया के घेरे में लाने का रास्ता साफ कर दिया है। बारह साल पहले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की भारत यात्रा के समय आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर के छत्तीसिहंपुरा में छत्तीस सिखों की हत्या कर दी थी। चार दिन बाद इस जनसंहार के आरोप में सेना ने पांच लोगों को मार गिराया और उनके आतंकवादी होने का दावा किया। मगर सेना के इस दावे पर शुरू से सवाल उठते रहे। मारे गए लोगों की शिनाख्त के लिए राज्य में बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए। आखिर जांच से यह तथ्य सामने आया कि सैनिक अधिकारियों के हाथों मारे गए पांचों व्यक्ति साधारण गांववासी थे। परिजनों ने उनके लापता होने की एफआइआर दर्ज कराई थी। जब मुठभेड़ में उनके मारे जाने की खबर आई तो वे स्तब्ध रह गए। उनकी मांग पर शवों को कब्र से निकाल कर डीएनए जांच कराई गई। यह साबित हो गया कि ये शव उन्हीं लोगों के थे जिनके लापता होने की प्राथमिकी दर्ज कराई गई थी। फिर इस मामले को 2003 में सीबीआइ को सौंप दिया गया। इसके तीन साल बाद विशेष अदालत में दायर किए गए आरोप पत्र में उसने साफ कहा है कि पचीस मार्च 2000 को पथरीबल में हुई घटना मुठभेड़ नहीं थी। पांचों व्यक्ति अनंतनाग और उसके आसपास से पकड़ कर लाए गए थे। उन्हें एक निर्जन स्थान पर ले जाकर सुनियोजित तरीके से मार डाला गया। इसी तरह का एक वाकया असम के कामरूप जिले का भी है। इन दोनों मामलों में चूंकि सेना के अधिकारी आरोपी हैं, इसलिए मुकदमे की कार्यवाही बरसों से रुकी रही है। इस गतिरोध का एक आयाम सुरक्षा बल विशेषाधिकार अधिनियम से भी जुड़ा रहा है। इस अधिनियम के तहत किसी आपराधिक मामले में सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चलाने से पहले केंद्र सरकार की इजाजत अनिवार्य है। इस प्रावधान पर सुप्रीम कोर्ट ने कोई प्रश्न नहीं उठाया है, पर यह भी साफ कर दिया है कि आरोपियों को बख्शा नहीं जाएगा। उसने सैन्य प्राधिकरण से कहा है कि वह खुद तय कर ले कि कोर्ट मार्शल की कार्यवाही हो या सामान्य अदालत में मुकदमा चले। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया है कि अगर सैन्य प्रतिष्ठान दो महीने में इस बारे में कोई निर्णय नहीं कर पाता है तो वह मुकदमा चलाने की अनुमति पाने के लिए केंद्र सरकार से फरियाद करे। सीबीआई के अनुरोध पर सरकार को तीन महीने में निर्णय करना होगा। इस तरह एक लंबे कानूनी झगड़े का अंत हो गया है। पर पथरीबल की घटना के बारह साल बाद मामला सिर्फ इस मुकाम पर पहुंचा है कि न्यायिक प्रकिया शुरू करने की अड़चनें खत्म होती दिख रही हैं। जब-जब सुरक्षा बल विशेषाधिकार कानून के दुरुपयोग की शिकायतें सामने आर्इं, सेना की ओर से यह दलील दी जाती रही कि आतंकवाद से निपटने के लिए यह कानून जरूरी है। पर इसमें सुरक्षा बलों के लिए विशेष प्रावधान कार्रवाई के दौरान होने वाली हिंसा को ध्यान में रख कर किए गए थे। जब सीबीआई जांच से फर्जी मुठभेड़ के आरोप की पुष्टि हुई, तो सेना ने कोर्ट मार्शल की कार्यवाही क्यों नहीं शुरू की? वैसा नहीं हुआ, तो केंद्र सरकार चुप क्यों बैठी रही? यह विचित्र है कि इतने अहम मामले में रक्षा मंत्रालय और सीबीआइ का रुख अलग- अलगरहा है। |
इंसाफ की ओर
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