अनदेखी की बुनियाद

असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, खासकर निर्माण-कार्य में लगे लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि से जुड़ी समस्याओं का कोई व्यावहारिक समाधान निकालना सरकार के लिए बड़ी चुनौती रही है। इसके मद्देनजर केंद्र ने निर्माण कंपनियों पर भवन एवं अन्य निर्माण मजदूर कल्याण उप-कर का प्रावधान किया। इसके तहत राज्य सरकारों ने निर्माण कंपनियों से छह हजार छह सौ सोलह करोड़ रुपए इकट्ठा किए। मगर विचित्र है कि उसमें से केवल नौ सौ पैंसठ करोड़ रुपए यानी महज चौदह फीसद राशि ही खर्च की जा सकी। इसके पीछे बड़ी वजह यह है कि निर्माण मजदूरों के पंजीकरण पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक देश में करीब चार करोड़ छियालीस लाख लोग निर्माण मजदूर के रूप में काम करते हैं। मगर उनमें से करीब बयासी लाख पंचानबे हजार लोगों का ही पंजीकरण हो पाया है। जाहिर है कि पंजीकरण से वंचित लोगों को उनके कल्याण के लिए जुटाए धन का लाभ नहीं मिल पाता। यह छिपी बात नहीं है कि निर्माण-क्षेत्र में लगातार विस्तार हो रहा है। इसमें काम करने वाले ज्यादातर लोगों को अपने घर से दूर विषम परिस्थितियों में रहना पड़ता है। उन जगहों पर उन्हें न तो रहन-सहन संबंधी माकूल बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, न जरूरत पड़ने पर उनकी चिकित्सा संबंधी जरूरतें पूरी हो पाती हैं। जिन लोगों के परिवार साथ रहते हैं, उनके बच्चों और गर्भवती महिलाओं को पोषाहार, नियमित जांच, प्रतिरोधक टीके लगाने, शिक्षा आदि से जुड़ी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। यही वजह है कि कुपोषण और   विषम परिस्थितियों में रहने की वजह से पैदा होने वाली बीमारियों के चलते हर साल लाखों लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं।
निर्माण मजदूरों की समस्याओं पर कई अध्ययन हो चुके हैं और कई उपयोगी सुझाव भी सामने आए हैं। पर जब उनके लिए उप-कर के जरिए जुटाई गई राशि का इस्तेमाल करने के लिए सरकारें तत्पर नहीं हैं तो बाकी उपायों के बारे में क्या कहा जाए!
निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले लोगों के पंजीकरण में कुछ दिक्कतें समझी जा सकती हैं। बहुत-से लोग खेती-बाड़ी के काम से फुरसत पाकर कुछ समय के लिए इस क्षेत्र में मजदूरी करने आते हैं। कुछ समय बाद कई मजदूर अपने काम बदल लेते हैं। ऐसे में निर्माण कंपनियों और पंजीकरण से जुड़े महकमे का तर्क होता है कि निर्माण मजदूर के रूप में उनकी पहचान सुनिश्चित करना कठिन है। मगर हकीकत है कि ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है, जो मुख्य रूप से निर्माण मजदूरी पर निर्भर हैं। लिहाजा, इनका पंजीकरण नहीं हो पाता तो इसमें निर्माण कंपनियों की चालाकी ही सबसे बड़ा कारण है। पंजीकरण को लेकर कंपनियां कन्नी काटती हैं ताकि काम में निहित जोखिम से जुड़ी अपनी जवाबदेहियों से बच सकें। चूंकि ज्यादातर निर्माण मजदूर दिहाड़ी पर काम करते हैं, इसलिए उनकी उपस्थिति आदि का पक्का ब्योरा नहीं रखा जाता। उनके रहन-सहन, स्वास्थ्य आदि से जुड़ी सुविधाओं का ध्यान रखना तो दूर, उनकी मजदूरी तय करने, किसी दुर्घटना में मारे जाने या अपंग हो जाने पर मुआवजे के भुगतान आदि में भी कंपनियां मनमानी करती हैं। सबूत के अभाव या फिर अदालती खर्च उठा पाने का सामर्थ्य न होने के कारण बहुत सारे मजदूर कानून के सहारे अपना हक हासिल नहीं कर पाते। ऐसे में अगर राज्य सरकारें उनके कल्याण कोष के उपयोग के मामले में लापरवाही बरतती हैं तो इसे उनकी असंवेदनशीलता ही जाहिर होती है।

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