8 Tips ताकि बेकार न जाए JOB इंटरव्यू

#  नौकरी को लेकर हिचकिचाहट का इजहार न करें। इंटरव्यू अपनी बात सख्ती से रखने का मंच नहीं है। आप वहां इंटरव्यू लेने वालों को राजी करने के लिए हैं कि आप ही इस नौकरी के लिए सबसे सही उम्मीदवार हैं। आपके हावभाव से ऊर्जा और उत्साह दिखना चाहिए। इंटरव्यू लेने वालों को यह बताना होगा कि आप इस नौकरी के लिए बेहद उत्साहित हैं और इसके लिए ज्यादा मेहनत भी करेंगे। आपको नौकरी को लेकर कोई शक है या फिर आप दूसरी जगहों पर भी इंटरव्यू दे रहे हैं तो इसका जिक्र न करें। जिन बातों का आप पर प्रभाव पड़ेगा उनके बारे में सवाल पूछ कर अपनी हिचकिचाहत दूर कर लें, लेकिन कभी भी ऐसा नहीं लगे कि आप इंटरव्यू लेने वाले से उसके लेवल पर बात कर रहे हैं।
 
#  अपनी बात को अच्छे से पेश करने और झूठ बोलने में थोड़ा फर्क है। यह बात अच्छी तरह समझ लें कि इस अंतर को आपको बहुत सावधानी से खत्म करना है। जिस फील्ड में आप नौकरी के लिए आवेदन कर रहे हैं, उसका अनुभव आपके पास नहीं हैं, तो कोई ऐसा तरीका तलाशें, जिससे आप अपने अनुभव को उस नौकरी से जोड़ सकें। उदाहरण के लिए एक शख्स ने जब वकालत की पढ़ाई करने के बाद पब्लिक रिलेशन के क्षेत्र में नौकरी करने का फैसला किया, तो उसने अपने बायोडाटा में स्टूडेंट क्लब में अपनी लीडरशिप वाली पोजीशन का जिक्र किया और उनसे मिली उन स्किल्स को भी रेखांकित किया, जिससे उसे पब्लिक रिलेशन के फील्ड में मदद मिलती। किसी भी मौके पर झूठ मत बोलिए। अगर आपको पास योग्यता, डिग्री या पहले कोई नौकरी नहीं थी तो इसके बारे में गलत जानकारी मत दें। इंटरव्यू लेने वाला आपसे ज्यादा अनुभवी होगा और वह जब इस बारे में आपसे सवाल पूछेगा तो आप कुछ बता नहीं पाएंगे। अगर आपका झूठ सामने आ गया तो आप मुश्किल में भी पड़ सकते हैं।

इंटरव्यू अपने लिए किसी खास चीज की मांग या कोई उपकार चाहने का वक्त नहीं होता। उस समय अपनी सीमाओं, आने वाली छुट्टियों या फिर किसी नकारात्मक बात का जिक्र न करें। आपको ऐसा दिखना चाहिए कि आप नौकरी को लेकर बेहद उत्साहित हैं और आपसे जो भी कहा जाएगा आप उस जिम्मेदारी को अच्छी तरह निभाएंगे। एक बार नौकरी आप को मिल जाए उसके बाद आप अपनी जरूरत की चीजों के लिए बात शुरू कर सकते हैं। यह कहने का मतलब यह नहीं कि आप झूठ बोल कर नौकरी हासिल करें। आपसे अगर सीधे-सीधे कोई ऐसा काम करने के बारे में पूछा जाए जो आप नहीं कर सकते तो इस बारे में ईमानदारी से जवाब दें। उदाहरण के लिए, अगर पूछा जाए कि आप संडे को ऑफिस में काम कर सकते हैं? और आप जानते हैं कि आर संडे को काम नहीं कर सकते तो ऐसा उन्हें बता दीजिए लेकिन इसके साथ ही उन्हें यह विकल्प भी दे दीजिए कि आप ई-मेल पर उपलब्ध रहेंगे या फिर सप्ताहांत में देर तक रुककर काम कर सकते हैं।
 
# एप्लीकेशन भेजने के बाद कॉल न आए तो इसकी कई वजहें हो सकती हैं। अधिकतर ओपन पोजिशन के लिए संभावित उम्मीदवारों की तरफ से काफी बायोडाटा आते हैं। इसकी संभावना रहती है कि जिस व्यक्ति के पास बायोडाटा छांटने की जिम्मेदारी हो, उसके पास कई दूसरी जिम्मेदारियां भी हों। हो सकता है कि बायोडाटा खो जाए। ऐसे में आप मामले को अपने हाथ में लें और खुद इंटरव्यू लेने वाले को कॉल कर जानकारी प्राप्त करें। एप्लीकेशन के लिए दी गई गाइडलाइन्स में इसका जिक्र हो कि, 'कृपया फोन न करें', तब आप फॉलोअप ई-मेल भेज सकते हैं। आप हर 3-4 दिन पर फोन करके इस संबंध में हुई प्रगति की जानकारी ले सकते हैं। कोशिश करने से बात जरूर बन जाती है। 
 
#  आप समय के पाबंद हैं। यह एक अच्छी बात है, लेकिन क्या आपको पता है कि इंटरव्यू के लिए समय से बहुत पहले पहुंचना भी भारी भूल है? आपको तय समय पर बुलाने के पीछे कोई कारण होगा। संभव है इंटरव्यू लेने वाला तय समय से पहले किसी और काम में व्यस्त हो। आप समय से पहले पहुंचेंगे तो सामने वाले को आपसे मिलने के लिए अपना काम जल्दी-जल्दी निपटाना पड़े, ऐसे में हो सकता है कि उसका मूड आपका इंटरव्यू शुरू होने से पहले ही खराब हो जाए। इंटरव्यू के लिए तय समय के दस मिनट पहले तक पहुंचना ठीक हैं।
 
#  इंटरव्यू के दौरान आप सवाल को दूसरे तरह से शुरू करते हुए अपना जवाब दे सकते हैं।
'मुझे नहीं पता' या 'ऐसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ।' अगर इंटरव्यू लेने वाले ने कोई ऐसा सवाल पूछ लिया, जो आप पर लागू नहीं होता, तो भी सवाल को सीधे-सीधे खारिज मत कीजिए। इसके बजाए यह सोचिए कि सवाल के पीछे उनकी मंशा क्या है। आप ऐसे अपना जवाब दे सकते हैं, 'मेरे साथ ऐसी घटना तो पहले नहीं हुई, लेकिन एक बार इसी से मिलता-जुलता वाकया जरूर हुआ था..।' या फिर 'अगर मेरे सामने ऐसी स्थिति आई तो मैं कुछ ऐसे इसे संभालूंगा..।'

#   अंत में जब इंटरव्यू लेने वाला आपसे पूछे कि आप कुछ पूछना चाहेंगे तो आप कोई सवाल पूछ सकते हैं। अगर आप कोई सवाल नहीं पूछते हैं, तो इससे यह संकेत जाएगा कि आप रुचि नहीं ले रहे हैं। अगर आपके पास सच में कोई सवाल नहीं है तो आप यह पूछ सकते हैं कि यहां अगर आपको नौकरी मिलती है तो दिन का शेड्यूल क्या होगा? जो भी पूछे वह इंट्रेस्टिंग होना चाहिए। यह दिखाइए कि आप इस क्षेत्र में काम करने की संभावना से उत्साहित हैं। आप चाहें तो तारीफ के एक-दो वाक्य से शुरुआत कर सकते हैं। आपको लगता है कि आपके सारे सवालों का जवाब मिल चुका है तो आप इस बात की तारीफ कर सकते हैं कि उन्होंने बहुत अच्छे से इंटरव्यू लिया।
 
#  इंटरव्यू लेने वाले पर अपना प्रभाव डालने और उन्हें याद रहने के लिए इंटरव्यू के बाद फॉलोअप जरूर करें। आप इंटरव्यू लेने वाले को समय देने के लिए धन्यवाद का ई-मेल भेज सकते हैं। आप इसमें पोजिशन को लेकर उत्साह दिखा सकते हैं और इस बात के लिए कुछ दलील भी दे सकते हैं कि आप इस पद के लिए क्यों उपयुक्त रहेंगे। अगर इंटरव्यू के बाद आपको लगता है कि यह पद आपके लिए नहीं है तो भी आप इंटरव्यू लेने वाले को ई-मेल कर इस बात की जानकारी दे सकते हैं। वह अपना समय न बर्बाद करने और आपकी साफगोई और ईमानदारी के लिए आपकी तारीफ करेगा। अगर भविष्य में कभी आपकी उनसे मुलाकात हुई तो अच्छी वजहों से आप उन्हें याद रहेंगे। आप इंटरव्यू लेने वाले को थैंक्यू कार्ड भी भेज सकते हैं। आजकल इसका चलन लगभग न के बराबर होता है इसलिए आप कुछ अलग दिखेंगे। हां, इस मौलिक बात को मत भूलिए कि अच्छे कपड़े पहनें, गर्मजोशी से हाथ मिलाएं और अपने साथ बायोडाटा लेकर जाएं।

गर गरीब ना होंगे तो राजनीति किसके नाम पर होगी?


भारत में गरीबी बढ़ने का एक अहम कारक जागरुकता का अभाव भी है. एक गरीब अपने अधिकारों के बारे में जानता ही नहीं जिसकी वजह से उसका शोषण होता है. अगर गरीब को पता हो कि उसे कहां से अपना राशन कार्ड, कहां से मनरेगा के लिए काम मिलेगा तो क्या वह गरीब अपनी गरीबी से लड़ नहीं सकता! पर उसकी इस समझ को भारत की राजनीति आगे बढ़ने ही नहीं देती.


भारतीय राजनीति का यह काला रूप ही है जो गरीबों को अशिक्षित और गरीब बनाए रखना चाहती है ताकि उसकी राजनीति चलती रहे वरना जिस दिन गरीब इंसान शिक्षित होकर गरीबी से उठ जाएगा उस दिन इन नेताओं को राजनीति करने का सबसे बड़ा और घातक अस्त्र हाथ से चला जाएगा. और जब गरीबी हटेगी और शिक्षा का स्तर बढ़ेगा तो उम्मीद है कुछ सच्चे और ईमानदार नेता राजनीति में आएं जो अपने क्षेत्र के विकास के लिए सच्चे मन से कार्य करें.


यदि हम दुनिया के दूसरे देशों की बात करें तो हमारे आसपास के देश भी सामाजिक क्षेत्र पर हमसे ज्यादा खर्च करते हैं.


गरीबों का मजाक

हाल ही में योजना आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि शहरों में रहने वाले यदि 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों के लोग 26 रुपये प्रतिदिन खर्च करते हैं तो वे गरीबी रेखा के दायरे में शामिल नहीं माने जाएंगे. अब आप इस रिपोर्ट को बकवास नहीं तो क्या कहेंगे? आप सोच कर देखिए जिस देश का योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वाले को गरीब ना मानें वहां गरीबी कैसे कम होगी?


भारत में आज एक अरब से अधिक आबादी प्रत्यक्ष गरीबी से जूझ रही है और ऐसे में भारत के भविष्य को संवारने का जिम्मा लेने वाला योजना आयोग 32 और 26 रुपए खर्च करने वालों को गरीब नहीं मानता.


अगर इस देश से गरीबी को हटाना है तो सबसे जरूरी है कि बड़े पैमाने पर गरीबों के बीच उनके अधिकारों की जागरुकता फैलाई जाए साथ ही राजनैतिक स्तर पर नैतिकता को मजबूत करना होगा जो उस गरीबी को देख सके जिसकी आग में छोटे बच्चों का भविष्य (जिन्हें देश के भावी भविष्य के रूप में देखा जाता है) तेज धूप में सड़कों पर भीख मांग कर कट रहा है.
 

अनाथ एवं जरूरतमंद बच्चो की मदद करे

कोई खाकर मरता है तो कोई बिना खाए

कैसी अजीब है यह दुनिया. यहां कोई बिना खाए भूख से मरता है तो कोई अधिक खाने से होने वाली बीमारी से मर जाता है. यहां गरीब हजारों कदम पैदल दो वक्त की रोटी कमाने के लिए चलता है तो वहीं अमीर अपने खाने को पचाने के लिए. रोटी ही इंसान की वह जरूरत है जिसके लिए वह जिंदगी भर अपना पसीना बहाता है लेकिन इस मेहनत के बाद भी बहुत कम लोगों को इस रोटी की जद्दोजहद से मुक्ति मिल पाती है. इनमें से कई जानें तो बिन रोटी के ही अपना दम तोड़ देती हैं.संसार में भोजन की कमी और भूख से प्रतिवर्ष करोड़ों जानें काल के गाल में समा जाती हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के अनुसार विकासशील देशों में प्रति पांच व्यक्ति में एक व्यक्ति कुपोषण का शिकार है. इनकी संख्या वर्तमान में लगभग 72.7 करोड़ है. 1.2 करोड़ बच्चों में लगभग 55 प्रतिशत कुपोषित बच्चे मृत्यु के मुंह में चले जाते हैं. भूख और कुपोषण से मरने वाले देशों की सूची के वैश्विक भूख सूचकांक में भारत को 88 देशों में 68वां स्थान मिला है.कुपोषण आज देश के लिए राष्ट्रीय शर्म है. भारत में कुपोषण की समस्या कुछ इलाकों में बहुत ज्यादा है. यही वजह है कि विश्व में कुपोषण से जितनी मौतें होती हैं, उनमें भारत का स्थान दूसरा है. वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनीतिक कारणों का परिणाम है. जब भूख और गरीबी राजनीतिक एजेंडा की प्राथमिकता में नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है. भारत को ही देख लें, जहां कुपोषण गरीब और कम विकसित पड़ोसियों मसलन बांग्लादेश और नेपाल से भी अधिक है. यहां तक कि यह उप-सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है, क्योंकि भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 प्रतिशत है, जबकि अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है.
लेकिन क्या सिर्फ कृषि उत्पाद बढ़ा कर और खाद्यान्न को बढ़ा कर हम भूख से अपनी लड़ाई को सही दिशा दे सकते हैं. चाहे विश्व के किसी कोने में इस सवाल का जवाब हां हो पर भारत में इस सवाल का जवाब ना है और इस ना की वजह है खाद्यान्नों को रखने के लिए जगह की कमी. यूं तो भारत विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर पिछले दशकों से बना हुआ है. लेकिन यह भी सच है कि यहां प्रतिवर्ष करोड़ों टन अनाज बर्बाद भी होता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 58,000 करोड़ रुपये का खाद्यान्न भंडारण आदि तकनीकी के अभाव में नष्ट हो जाता है. भूखी जनसंख्या इन खाद्यान्नों पर ताक लगाए बैठी रह जाती है. कुल उत्पादित खाद्य पदार्थो में केवल दो प्रतिशत ही संसाधित किया जा रहा है.

भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं. 
ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है. तमाम लोग दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसी जद्दोजहद में गरीब दम तक तोड़ देते हैं, जबकि सरकार के पास अनाज रखने को जगह नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने भूख से लड़ने के लिए कारगर उपाय नहीं किए हैं. देश में आज खाद्य सुरक्षा व मानक अधिनियम 2006 के तहत खाद्य पदार्थो और शीतल पेय को सुरक्षित रखने के लिए विधेयक संसद से पारित हो चुका है, जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय बागवानी मिशन, नरेगा, मिड डे भोजन, काम के बदले अनाज, सार्वजानिक वितरण प्रणाली, सामाजिक सुरक्षा नेट, अंत्योदय अन्न योजना आदि कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, ताकि सभी देशवासियों की भूख मिटाने के लिए ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से जीवनयापन के लिए रोजगार परक आय व पोषणयुक्त भोजन मिल सके. लेकिन कागजों पर बनने वाली यह योजनाएं जमीन पर कितनी अमल की जाती हैं इसका अंदाज आप भारत में भूख से मरने वाले लोगों की संख्या से लगा सकते हैं.
भूख की वैश्विक समस्या को तभी हल किया जा सकता है जब उत्पादन बढ़ाया जाए. साथ ही उससे जुड़े अन्य पहलुओं पर भी समान रूप से नजर रखी जाए. खाद्यान्न सुरक्षा तभी संभव है जब सभी लोगों को हर समय, पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से युक्त खाद्यान्न मिले जो उनकी आहार संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सके. साथ ही कुपोषण का रिश्ता गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, आदि से भी है. इसलिए कई मोर्चों पर एक साथ मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना होगा.

विश्व खाद्य दिवस


एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वह भूख से मर रहे हैं. कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है. दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल बिना खाए सड़ जाता है. गरीब देशों में इनकी बड़ी मात्रा खेतों के नजदीक ही बर्बाद हो जाती है. विशेषज्ञों के अनुसार इस बर्बादी को आसानी से आधा किया जा सकता है. अगर ऐसा किया जा सके तो यह एक तरह से पैदावार में 15-25 फीसदी वृद्धि के बराबर होगी. अमीर देश भी अपने कुल खाद्यान्न उत्पादन का करीब आधा बर्बाद कर देते हैं लेकिन इनके तरीके जरा हटकर होते हैं.एक ओर दुनिया में हथियारों की होड़ चल रही है और अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं तो दूसरी ओर आज भी 85 करोड़ 50 लाख ऐसे बदनसीब पुरुष, महिलाएं और बच्चे हैं जो भूखे पेट सोने को मजबूर हैं. संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में खाद्यान्न का इतना भंडार है जो प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चे का पेट भरने के लिए पर्याप्त है लेकिन इसके बावजूद आज 85 करोड़ 50 से अधिक ऐसे लोग हैं जो दीर्घकालिक भुखमरी और कुपोषण या अल्प पोषण की समस्या से जूझ रहे हैं.


रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि 2015 तक हमें भूख से निपटना है और गरीबी से ग्रस्त लोगों की संख्या प्रथम सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य से आधी करनी है तो हमें अपने प्रयासों को दोगुनी गति से आगे बढाना होगा.


खाद्यान्न की कमी ने विश्व के सर्वोच्च संगठनों और सरकारों को भी सोचने पर विवश कर दिया है. भारत में हाल ही में "खाद्य सुरक्षा बिल" लाया गया है लेकिन इस बिल का पास होना या ना होना इसकी सफलता नहीं है. हम सब जानते हैं भारत में खाद्यान्न की कमी को खास मुद्दा नहीं है बल्कि सार्वजनिक आपूर्ति प्रणाली और खाद्यान्न भंडारण की समस्या असली समस्या है. भारत में लाखों टन अनाज खुले में सड़ रहा है. यह सब ऐसे समय हो रहा है जब करोड़ों लोग भूखे पेट सो रहे हैं और छह साल से छोटे बच्चों में से 47 फीसदी कुपोषण के शिकार हैं.ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है. 1979 में खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया गया था. इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन इसके बावजूद आज भी लाखों टन अनाज बर्बाद होता है.खाद्यान्न की इसी समस्या को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने विश्व खाद्य दिवस की घोषणा की थी. 16 अक्टूबर, 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में विश्व खाद्य दिवस की शुरुआत हुई जो अब तक चली आ रही है. इसका मुख्य उद्देश्य दुनिया में भुखमरी खत्म करना है. आज भी विश्व में करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं. हमें विश्व से भुखमरी मिटाने के लिए अत्याधुनिक तरीके से खेती करनी होगी. इस साल खाद्य दिवस की थीम "खाद्य सामग्रियों की बढ़ती कीमतों को स्थिर" करना है.


बढ़ते पेट्रोल के दामों और जनसंख्या विस्फोट की वजह से आज खाद्य पदार्थों के भाव आसमान पर जा रहे हैं जिसे काबू करना किसी भी सरकार के बस में नहीं है. ऐसे में सही रणनीति और किसानों को प्रोत्साहन देने से ही हम खाद्यान्न की समस्या को दूर कर सकते हैं.


हमें समझना होगा कि भोजन का अधिकार आर्थिक,नैतिक और राजनीतिक रूप से ही अनिवार्य नहीं है बल्कि यह एक कानूनी दायित्व भी है.वर्तमान समय और परिस्थितियों में दुनिया के सभी देशों को सामुदायिक, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनभावना को संगठित करना होगा.



 

कहीं मोटापा, कहीं भुखमरी का दंश

एक सर्वे के मुताबिक मेट्रो शहरों की 70 फीसदी आबादी मोटापे की शिकार है। मेट्रो में रहने वाला मध्यम और उच्च वर्ग पढ़ा लिखा, जानकार है। हम सब जानते है कि मोटापा डायबिटीज, हृदय रोग, कैंसर, कोलेस्ट्राल, थायराइड समेत 50 से ज्यादा बीमारियों का वाहक है फिर भी हम इसे क्यों नहीं रोक पाते। यह भी सच है कि भारत की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी युवा और देश का भविष्य इन्हींकंधों पर है। अगर भावी पीढ़ी बीमारियों के भंवर में जकड़ जाएगी तो हम भी वही रोना रोते नजर आएंगे जो आज अमेरिका और यूरोपीय देश रो रहे हैं। मोटापा और उससे जनित डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियों की वजह से वहां सामाजिक सुरक्षा का खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया है कि सरकारें लाचार नजर आ रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तमाम आंकड़ो के जरिए चेतावनी दी है कि यही हाल रहा तो भारत अगले 15 से 20 वर्षों में डायबिटीज, मोटापा और कैंसर के मरीजों की राजधानी में तब्दील हो जाएगा। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर छह में से एक महिला और हर पांच में से एक पुरुष मोटापे का शिकार है। भारत में मोटापे के शिकार लोगों की संख्या सात करोड़ पार कर गई है। सबसे खतरनाक बात है कि 14-18 साल के 17 फीसदी बच्चे मोटापे से पीडि़त हैं। एक अध्ययन के मुताबिक बड़े शहरों में 21 से 30 फीसदी तक स्कूली बच्चों का वजन जरूरत से काफी ज्यादा है।


विशेषज्ञों के मुताबिक किशोरावस्था में ही मोटापे के शिकार बच्चे युवा होने तक कई गंभीर बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ता है। यही वजह है कि आजकल 30 साल से कम उम्र के लोगों में भी हृदय रोग, डायबिटीज, कैंसर जैसी बीमारियां तेजी से उभर रही हैं। यहींनहीं शहरों में रहने वाले हर पांच में एक शख्स डायबिटीज या हाइपरटेंशन का शिकार है। सभी प्रकार के संसाधनों से लैस होने के बावजूद शहरी मध्यवर्ग विलासिता और गलत खान-पान की आदतों से छुटकारा पाने में असफल रहा है। सवाल उठता है कि जो देश भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवकाल में महिलाओं की मौत की ऊंची दर से परेशान हो, क्या उसे उच्च वर्ग की विलासिता और भोगवादी संस्कृति से उपजी इन बीमारियों का बोझ अपने कंधों पर उठाना चाहिए। दरअसल इन बीमारियों से लड़ने की हमारी नीति नकारात्मक और संकीर्ण है। विडंबना है कि सरकारें यह क्यों नहीं सोचतींकि कानून या योजना बनाने या उसके लिए बजट घोषित करने से सामाजिक समस्याओं का निदान नहीं हो सकता। इसमें सरकार, समाज और प्रभावितों को शामिल करना जरूरी है। मोटापा या जानलेवा बीमारियों के इलाज के लिए अस्पताल और अन्य जरूरी संसाधन मुहैया कराना जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक है कि इन बीमारियों का प्रकोप बढ़ने से रोका जाए।या यूं कहें कि मोटापे से लड़ने के लिए हमें वैसे ही दृष्टिकोण की जरूरत आ पड़ी है जैसी कि हम तंबाकूयुक्त पदार्थो को लेकर करते हैं।


मोटापे को लेकर सरकार की नीति बेहद संकीर्ण और अव्यावहारिक है। मसलन निजी और सरकारी स्कूलों में फास्टफूड, उच्च कैलोरी युक्त पदार्थ धड़ल्ले से बिक रहे हैं। स्कूली दिनचर्या में खेलकूद और शारीरिक शिक्षा किताबी पन्नों में सिमट कर रह गई है। मगर सरकारें असहाय हैं। बाजार बच्चों, युवाओं और बूढ़ों को भ्रामक विज्ञापनों से ललचा रहा है मगर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय खामोश है। स्वस्थ रहने और बीमारियों से बचने की बातें पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। निजी-सरकारी क्षेत्र के स्कूलों, कार्यालयों और प्रतिष्ठानों में लोगों के खानपान, कार्यशैली और स्थानीय पर्यावरण को लेकर सरकार और निजी क्षेत्र मिलकर सर्वे और जागरूकता कार्यक्रम क्यों नहींचलाते। स्थानीय पर्यावरण मसलन वहां की हवा, पानी, खाद्य वस्तुएं लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर डालती हैं, इस पर शोध और विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने की जहमत सरकार क्यों नहीं उठाया जाता। नौकरशाही तांगे के घोड़ों की तरह काम कर रही है जिसकी आंखों पर पट्टी बंधी है और राजनीतिक नेतृत्व जितनी लगाम खींचता है बस वह उतने डग भरती है। बदकिस्मती से राजनेताओं का मकसद भी केवल गाड़ी खींचने तक सीमित रह गया है। अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि भारत और अन्य एशियाई देशों का पर्यावरण, लोगों की शारीरिक स्थिति एवं कार्यप्रणाली ऐसी है कि यहां मोटापा और उससे जनित जानलेवा बीमारियों यानी कैंसर, डायबिटीज, हृदयरोग के फैलने का खतरा ज्यादा है। मोटापा से होने वाली टाइप टू डायबिटीज से करीब सात करोड़ भारतीय परेशान हैं। इसलिए बच्चों, युवाओं के आसपास ऐसा माहौल विकसित करना जरूरी है कि वे ऐसे खाद्य एवं पेय पदार्थों से दूर रहें कि वे मोटापा और अन्य बीमारियों का शिकार हों। हमारे नौनिहाल और युवा पीढ़ी अगर बीमारियों से घिरी रहेगी तो कार्यक्षमता तो घटेगी ही, देश के मानव संसाधन पर भी प्रभाव पड़ेगा।


सरकार अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का बड़ा हिस्सा विलासिता से पैदा होने वाली बीमारियों पर खर्च करेगी तो भुखमरी, कुपोषण, बाल मृत्यु दर, प्रसवोपरांत महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए नियोजित बजट पर असर पड़ेगा। ऐसे में मोटापा और उससे होने वाली बीमारियों से लड़ने के लिए सकारात्मक और प्रोएक्टिव कदम उठाने होंगे। केंद्र और राज्य स्तर पर सरकार और निजी क्षेत्र के स्कूलों, अस्पतालों, प्रतिष्ठानों और गैर सरकारी संगठनों को इस समग्र नीति का हिस्सेदार बनाना होगा। और हां प्रभावित होने वाले वर्ग यानी बच्चों और युवाओं को भी इस अभियान का भागीदार बनाना होगा, तभी कोई नीति सफल हो पाएगी। नकारात्मक उपायों के तौर पर फास्ट फूड और उच्च कैलोरी युक्त पेय पदार्थो की बिक्री को हतोत्साहित करना होगा। डिब्बाबंद खाद्य और पेय पदार्थो पर ऐसे मानक तय करने होंगे जिससे स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव न पड़े। ऐसे जंक फूड और हाइड्रेटेड ड्रिंक की स्कूली परिसर के सौ मीटर के दायरे में बिक्री भी प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। स्कूल में आयोजित स्वास्थ्य जागरूकता कार्यक्रमों में बच्चों के साथ उनके अभिभावकों की भी हिस्सेदारी होनी चाहिए क्योंकि वे ही अपनी संतानों के खानपान और जीवनशैली के लिए जिम्मेदार होते हैं। इन खाद्य पदार्थो के पैकेट पर भी सामान्य चेतावनी लिखी जानी चाहिए, जिसमें इनके सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों का जिक्र हो ताकि दुकानदार अपने ग्राहकों को बहका न सकें और इसका नुकसान ज्यादा नहो सके। हमें बच्चों और युवाओं को यह समझाना होगा कि ये फास्टफूड और कैलोरीयुक्त पेय पदार्थ पश्चिमी वातावरण और स्थितियों के तो अनुकूल हैं मगर हमारे पर्यावरण के लिहाज से यह साइलेंट किलर की तरह हैं।

भू जल रिचार्ज


नलकूपों द्वारा रिचार्जिंग: छत से एकत्र पानी को स्टोरेज टैंक तक पहुंचाया जाता है। स्टोरेज टैंक का फिल्टर किया हुआ पानी नलकूपों तक पहुंचाकर गहराई में स्थित जलवाही स्तर को रिचार्ज किया जाता है। इस्तेमाल न किए जाने वाले नलकूप से भी रिचार्ज किया जा सकता है।


गड्ढे खोदकर: ईंटों के बने ये किसी भी आकार के गड्ढे होते हैं। इनकी दीवारों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर सुराख बनाए जाते हैं। गड्ढे का मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इसकी तलहटी में फिल्टर करने वाली वस्तुएं डाल दी जाती हैं।


सोक वेज या रिचार्ज साफ्ट्स: इनका इस्तेमाल वहां किया जाता है जहां की मिट्टी जलोढ़ होती है। इसमें 30 सेमी ब्यास वाले 10 से 15 मीटर गहरे छेद बनाए जाते हैं। इसके प्रवेश द्वार पर जल एकत्र होने के लिए एक बड़ा आयताकार गड्ढा बनाया जाता है। इसका मुंह पक्की फर्श से बंद कर दिया जाता है। इस गड्ढे में बजरी, रोड़ी, बालू इत्यादि डाले जाते हैं।


खोदे गए कुओं द्वारा रिचार्जिंग: छत के पानी को फिल्ट्रेशन

बेड से गुजारने के बाद इन कुंओं में पहुंचाया जाता है। इस

तरीके में रिचार्ज गति को बनाए रखने के लिए कुएं की लगातार सफाई करनी होती है।


खाई बनाकर: जिस क्षेत्र में जमीन की ऊपरी पर्त कठोर और छिछली होती है, वहां इसका इस्तेमाल किया जाता है। जमीन पर खाई खोदकर उसमें बजरी, ईंट के टुकड़े आदि भर दिया जाता है। यह तरीका छोटे मकानों, खेल के मैदानों, पार्कों इत्यादि के लिए उपयुक्त होता है।


रिसाव टैंक: ये कृत्रिम रूप से सतह पर निर्मित जल निकाय होते हैं। बारिश के पानी को यहां जमा किया जाता है। इसमें संचित जल रिसकर धरती के भीतर जाता है। इससे भू जल स्तर ऊपर उठता है। संग्र्रहित जल का सीधे बागवानी इत्यादि कार्यों में इस्तेमाल किया जा सकता है। रिसाव टैंकों को बगीचों, खुले स्थानों और सड़क किनारे हरित पट्टी क्षेत्र में बनाया जाना चाहिए.


पानी की खातिर…

रेनवाटर हार्वेस्टिंग भारत की बहुत पुरानी परंपरा है। हमारे पुरखे इसी प्रणाली द्वारा अनमोल जल संसाधन का मांग और पूर्ति में संतुलन कायम रखते थे। 

 
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जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव
 

जल संचय के साथ जरूरी है जल स्रोतों का रखरखाव

हमारे शहरों में पानी की मांग तेजी से बढ़ रही हैं। तेजी से बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या का गला तर करने के लिए हमारी नगरपालिकाएं आदतन कई किमी दूर अपनी सीमा से परे जाकर पानी खींचने का प्रयास कर रही हैं। लेकिन हमारी समझ में यह नहीं आता है कि आखिर सैकड़ों किमी दूर से पानी खींचने का यह पागलपन क्यों किया जा रहा है? इसका प्रमुख कारण हमारे शहरी प्लानर, इंजीनियर, बिल्डर और आर्किटेक्ट हैं जिन्हें कभी नहीं बताया जाता कि कैसे सुलभ पानी को पकड़ा जाए। उन्हें अपने शहर के जल निकायों की अहमियत को समझना चाहिए। इसकी जगह वे लोग जल निकायों की बेशकीमती जमीन को देखते हैं, जिससे जल स्नोत या तो कूड़े-करकट या फिर मलवे में दबकर खत्म हो जाते हैं।


देश के सभी शहर कभी अपने जल स्नोतों के लिए जाने जाते थे। टैंकों, झीलों, बावली और वर्षा जल को संचित करने वाली इन जल संरचनाओं से पानी को लेकर उस शहर के आचार विचार और व्यवहार का पता लगता था। लेकिन आज हम धरती के जलवाही स्तर को चोट पहुंचा रहे हैं। किसी को पता नहीं है कि हम कितनी मात्रा में भू जल का दोहन कर रहे हैं। यह सभी को मालूम होना चाहिए कि भू जल संसाधन एक बैंक की तरह होता है। जितना हम निकालते हैं उतना उसमें डालना (रिचार्ज) भी पड़ता है। इसलिए हमें पानी की प्रत्येक बूंद का हिसाब-किताब रखना होगा।


1980 के शुरुआती वर्षों से सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट रेनवाटर हार्वेस्टिंग संकल्पना की तरफदारी कर रहा है। इसे एक अभियान का रूप देने से ही लोगों और नीति-नियंताओं की तरफ इसका ध्यान गया। देश के कई शहरों ने नगरपालिका कानूनों में बदलाव कर रेनवाटर हार्वेस्टिंग को आवश्यक कर दिया। हालांकि अभी चेन्नई ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसने रेनवाटर हार्वेस्टिंग प्रणाली को कारगर रूप से लागू किया है।


2003 में तमिलनाडु ने एक अध्यादेश पारित करके शहर के सभी भवनों के लिए इसे जरूरी बना दिया। यह कानून ठीक उस समय बना जब चेन्नई शहर भयावह जल संकट के दौर से गुजर रहा था। सूखे के हालात और सार्वजनिक एजेंसियों से दूर हुए पानी ने लोगों को उनके घर के पीछे कुओं में रेनवाटर संचित करने की अहमियत समझ में आई।


यदि किसी शहर की जलापूर्ति के लिए रेनवाटर हार्वेस्टिंग मुख्य विकल्प हो, तो यह केवल मकानों के छतों के पानी को ही संचित करने तक ही नहीं सीमित होना चाहिए। वहां के झीलों और तालाबों कासंरक्षण भी आवश्यक रूप से किया जाना चाहिए। वर्तमान में इन संरचनाओं को बिल्डर्स और प्रदूषण से समान रूप में खतरा है। बिल्डर्स अवैध तरीके से इन पर कब्जे का मंसूबा पाले रहते हैं वहीं प्रदूषण इनकी मंशा को सफल बनाने की भूमिका अदा करता है।


इस मामले में सभी को रास्ता दिखाने वाला चेन्नई शहर समुद्र से महंगे पानी के फेर में कैद है। अब यह वर्षा जल की कीमत नहीं समझना चाहता है। अन्य कई शहरों की तर्ज पर यह भी सैकड़ों किमी दूर से पानी लाकर अपना गला तर करना चाह रहा है। भविष्य में ऐसी योजना शहर और देश के लिए महंगी साबित होगी।

 
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दृढ़ इच्छाशक्ति से ही निकलेगा समाधान
घोर जल संकट चिंता का विषय है। आखिर करें तो क्या करें। वर्षा जल संचय का मतलब बरसात के पानी को एकत्र करके जमीन में वापस ले जाया जाए। 28 जुलाई 2001 को दिल्ली के लिए तपस की याचिका पर अदालत ने 100 वर्गमीटर प्लॉट पर रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम (आरडब्ल्यूएच) अनिवार्य कर दिया। उसके बाद फ्लाईओवर और सड़कों पर 2005 में इस प्रणाली को लगाना जरूरी बनाया गया। लेकिन हकीकत में कोई सामाजिक संस्था इसको लागू करने के लिए खुद को जिम्मेदार नहीं मानती है।

सीजीडब्ल्यूए को नोडल एजेंसी बनाया गया था लेकिन उनके पास कर्मचारी और इच्छाशक्ति में कमी है। इस संस्था ने अधिसूचना जारी करने और कुछ आरडब्ल्यूएच के डिजाइन देने के अलावा कुछ नहीं किया है। एमसीडी, एनडीएमसी के पास इस बारे में तकनीकी ज्ञान नहीं है। दिल्ली जलबोर्ड में इच्छाशक्ति की कमी है। वे सीजीडब्ल्यूए को दोष देकर अपनी खानापूर्ति करते हैं।

हमारे पूर्वजों ने बावड़ियां बनवाई थी। तालाब बनवाए थे। जिन्हें कुदरती रूप से आरडब्ल्यूएच के लिए इस्तेमाल किया जाता था। सरकार चाहे तो इनसे सीख ले सकती है। आज 12 साल बाद भी सरकार के पास रेनवाटर हार्वेस्टिंग को लेकर कोई ठोस आंकड़ा नहीं उपलब्ध है। सरकार को नहीं पता है कि कितनी जगह ऐसी प्रणाली काम कर रही है। केवल कुछ आर्थिक सहायता देने से ये कहानी आगे नहीं बढ़ेगी। इच्छाशक्ति होगी तो रास्ता भी आगे निकल आएगा। किसी एक संस्था को जिम्मेदार बनाना पड़ेगा और कानून को सख्त करने की जरूरत होगी। एक ऐसी एजेंसी अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए जहां से जनता रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम से जुड़ी सभी जानकारियां ले सके। जागरूकता ही सफलता हासिल होगी।


 

लड़कियों की आज़ादी या बर्बादी


लड़कियों की आज़ादी या बर्बादी
लड़कियों की आज़ादी एक ऐसा मुद्दा बन गया है जो आज एक तपते हुए गर्म तवे का रूप धारण कर चुका है. और इस पर क्या समाज सेवी, क्या महिला आयोग, क्या राज नीतिक दल और क्या टूट पूंजिहे विचारक सभी अपने अपने अनेक तरह के आटे की रोटियाँ सेंकते चले जा रहे है. किताबी फिलास्फां के हवाई उड़ान में मजे से उड़ते हुए किसी को धरातलीय वास्तविकता की तरफ देखने की रूचि नहीं है. क्योकि यदि सतही सच्चाई की तरफ देखेगें तो यह एक सठियाई हुई पुरातन विचार धारा हो जायेगी.
क्या प्राचीन काल में बेटियों के आठ हाथ पैर होते थे? या क्या प्राचीन काल में लड़कियां सुन्दर नहीं होती थीं? क्या प्राचीन काल में रावण, दुशासन और हिरण्यकश्यप नहीं होते थे? या क्या प्राचीन काल के माता-पिता या अभिभावक अपनी बेटियों के शील, आचरण, इज्ज़त तथा मान मर्यादा के प्रति लापरवाह थे?
लड़कियों की आज़ादी को आज किस रूप में परिभाषित करने के लिए हो हल्ला हो रहा है? क्या पढ़ाई या शिक्षा दीक्षा की दिशा में उनकी आज़ादी छिनी जा रही है? क्या नौकरी के क्षत्र में उन्हें आज़ादी नहीं दी जा रही है? आज लड़कियों की आज़ादी का मतलब है उन्हें स्वच्छंद रूप से लड़को के साथ विचरण करने की आज़ादी. उन्हें लड़को के समान आचरण करने की आज़ादी.
क्या आधुनिक साजो सामान से सुसज्जित पार्टी में जाने की इजाज़त मिल जाने से उनकी गुलामी समाप्त हो जायेगी? क्या लड़को के साथ हंसी ठिठोली करने से लड़कियां आज़ाद कहलायेगीं?
लडके अपनी पार्टी करते है. उसमें वे एक दूसरे के साथ कैसी भाषा, इशारा, हरक़त आदि करते है. वे अपनी प्रकृति, बनावट, परिवेश एवं चर्या के अनुसार अपनी पार्टी मनाते है. क्या उनके साथ लड़कियों को पार्टी में शरीक होना तथा वही हरक़तें करना एवं करवाना ही आज़ादी है? आज कल की पार्टी में क्या होता है, इससे कौन परिचित नहीं है? क्या रात के अँधेरे में ही एक जवान लड़की की पार्टी परवान चढ़ती है?
क्या अँग प्रत्यंग को बखूबी दर्शाने वाले वस्त्र पहनने की इजाज़त लड़कियों को देना ही उनकी आज़ादी है? तो यदि वस्त्र पहनने का तात्पर्य अँग प्रदर्शन ही है तो फिर वस्त्रो की क्या आवश्यकता? निर्वस्त्र ही रहे. और ज्यादा अच्छी तरह से अंगो की नुमाईस हो जायेगी.
यदि पुरातन विचार धारा को छोड़ ही दिया जाय तो आधुनिक परिप्रेक्ष्य में ही लड़कियां लड़को के किन किन कामो की बराबरी करेगीं? कौन कौन से काम लड़कियां लड़को के समान करेगीं?
जब कभी कोई नदी अपनी सीमा तोड़ती है तो बाढ़ ही आती है. और सिवाय नुकसान के कुछ भी हाथ नहीं लगता. पेट खाना खाने के लिए होता है. वह कोई गोदाम नहीं है जिसमें कूड़ा कबाड़ भर दिए जाय. टोपी पैर में नहीं बल्कि सिर पर शोभा पाती है. सबकी अपनी सीमा होती है. लड़कियों को अपनी प्रकृति, स्वभाव तथा चर्या को ध्यान में रखते हुए स्वयं अपनी सीमा निर्धारित करनी चाहिए.
लड़कियों को उस क्षत्र में परचम लहराना चाहिए जिसमें उनकी प्रकृति उनका साथ दे.
लड़कियां सदैव लड़को से आगे रह सकती है. किन्तु अपने क्षेत्र में ही उन्हें आगे बढ़ना चाहिए. हम एक ही उदाहरण यहाँ प्रस्तुत करते है.
झांसी की रानी लक्ष्मी बाई कोई पार्टी रात के अँधेरे में अटेंड नहीं करती थी. उन्हें किसी कैबरे या पाश्चात्य नृत्य शैली का ज्ञान नहीं था. वह किसी पर पुरुष के साथ कमर में हाथ डाल कर "डांस" नहीं किया करती थी. लेकिन किसी मनचले या छिछोरे की हिम्मत नहीं थी जो उनकी तरफ बदनियति की नज़र डाल सके. और स्वतन्त्रता की लड़ाई में उन्होंने अंग्रेजो के छक्के छुडा दिए.
उनके ऊपर सख्त परम्परागत अनुशासन था. उनका आवास अन्तःपुर में ही होता था. उनके ब्वाय फ्रेंड नहीं हुआ करते थे. और तो और उन्हें अपनी मर्जी के मुताबिक़ अपना जीवन साथी भी चुनने की इजाज़त नहीं थी.
कारण यह था क़ि उन्हें अपने माता-पिता, अभिभावक पर भरोसा था. उन्हें ज्ञात था क़ि उनके माता पिता कभी भी उनकी बुराई नहीं चाहेगें. वह जो भी करेगें उसमें उनका सुख मय संसार ही होगा. आज लड़कियों को अपने मा बाप पर भरोसा नहीं रहा. उन्हें अपने जीवन साथी चुनने की स्वतन्त्रता चाहिए. मा बाप के अनुभव, विचार, भाव या सोच की कोई महत्ता नहीं है. उनके आदर्श एवं प्रतिबन्ध आज कल के लडके लड़कियों के लिए बेमानी है.
आज कल की लड़कियों को आज़ादी कुल खान दान की इज्ज़त, मान मर्यादा, शिक्षा, सदाचार एवं नैतिकता के उत्थान के क्षत्र में नहीं, बल्कि पार्टी, पिकनिक, ड्रेस एवं "फास्ट फ़ूड" के क्षत्र में चाहिए.
क्या लड़कियां लड़कियों को अपना फ्रेड नहीं बना सकतीं? क्या आवश्यक है क़ि लड़की का फ्रेड लड़का ही होगा?
ज़रा सच्चे मन से अपने दिल पर हाथ रख कर यह बताइये क़ि एक लड़की का फ्रेंड लड़का किस लिए होगा? शिक्षा के क्षेत्र में तो किसी सीमा तक मै मान सकता हूँ. हालाकि तार्किक रूप से यह भी मानने के योग्य नहीं है. क्योकि शिक्षा के भी क्षेत्र में लड़कियां लड़कियों से ही सहयोग लें तो अच्छा है. किन्तु इसके अलावा यदि कोई लड़की किसी लडके को फ्रेंड बनाती है तो किस उद्देश्य की पूर्ती के लिए? दिन की पार्टी में वह कौन सा मजा है जो नहीं मिलता है. और रात की पार्टी में मिलना शुरू हो जाता है?
अभिभावकों या माता पिता ने इस तरह के व्यवहार के लिए यदि अपनी लड़कियों को प्रतिबंधित किया था तो उसके पीछे क्या कारण था? क्या वे चाहते थे क़ि उसकी बेटी उन्नति या विकाश न करे? क्या कोई भी मा बाप यह चाहेगा क़ि उसकी बेटी का यश न बढे?
थोथे आदर्शो को छोड़ कर देखें. क्या लडके ही बलात्कार कर रहे है? क्या लड़कियां बलात्कार नहीं कर रही है? अंतर सिर्फ इतना है क़ि लडके सड़क पर बलात्कार कर रहे है. तथा लड़कियां बार, रेस्टुरेंट एवं मसाज़ पार्लर में बलात्कार कर रही है. उनका अच्छा खासा जीवन बर्बाद कर रही है.
यदि पानी अपनी नाली को ध्यान में रखते हुए बहे तो अपने गंतव्य तक पहुँच जाएगा. और जब उसे नाली के मेंड या नाली की सीमा का ध्यान नहीं रहेगा तो पानी तो इधर उधर बहेगा ही.
आज देखिये. लड़कियां लड़को के वस्त्र धारण कर अपने आप को ज्यादा "एडवांस" समझती है. लडके लड़कियों की तरह लम्बे बाल रख कर अपने आप को ज्यादा सभ्य समझते है. लड़कियां बाल लड़को की तरह कटवाकर अपने आप को ज्यादा पढी लिखी समझती है.
इन पुरातन सामजिक मान मर्यादाओं को धता बता कर तथा उन सीमाओं को तोड़ कर ही क्या सामाजिक उन्नति एवं समरसता या लड़कियों की आज़ादी को परवान चढ़ाया जा सकता है?
चाहे कितना भी हो हल्ला सरकार, समाज सुधारक एवं एवं दार्शनिक कर लें, एक लम्बे अनुभव के बाद स्थापित सामाजिक प्रतिबंधो, सीमाओं, एवं मर्यादाओं को लांघने के बाद समाज, सम्बन्ध, उन्नति एवं आदर्श सदाचार आदि की कल्पना कोरी कल्पना ही होगी. इससे और ज्यादा व्यभिचार, अनाचार, अत्याचार आदि को ही बढ़ावा मिलेगा.
यद्यपि मुझे यह अच्छी तरह ज्ञात है क़ि सबके मन में छिपे हुए ऐसे भाव है क़ि लड़कियों का ऐसा व्यवहार निम्न स्तरीय है. किन्तु थोथे सामजिक स्तर को बनाए रखने के लिए तथा कोई यह न कहे क़ि यह तो पुरातन पंथी है, सब के साथ सुर में सुर मिलाकर हल्ला कर रहे है क़ि लड़कियों के साथ अत्याचार हो रहा है. उनकी आज़ादी छिनी जा रही है. किन्तु जब डरे मन से अपनी लड़की की तरफ देखते है तो यह हो हल्ला गायब हो जाता है. फिर उन्हें नसीहत देना शुरू कर देते है. तथा पूछना शुरू कर देते है क़ि इतनी देर कहाँ थी? क्या कर रही थी? स्कूल छूटे तो इतना देर हो गया? फलाने लडके के साथ क्या कर रही थी?
लड़कियों को आज़ादी देने की तथा उन्हें लड़को की तरह समानता देने की बात करने वाले कौन ऐसे महाशय है जो अपनी जवान लड़की के साथ एक ही बिस्तर पर सोते है? जवान लडके के साथ तो बे हिचक सो सकते है. जवान लड़की के साथ सोने में क्यों हिचकते है? यदि लडके लड़की में में कोई अंतर नहीं है. दोनों को समान अवसर मिलना चाहिए. दोनों के प्रति समान दृष्टि रखनी चाहिए.
यह सब पाखण्ड भरी दार्शनिक बातें किताबो में ही अच्छी लगती है. या फिर चुनावी अखाड़ो में भाषण देने के लिए ही अच्छी लगती है. या फिर महिला आयोग एवं पुरुष आयोग नामक संस्थाओं की दूकान चलाने के लिए ही उपयुक्त है. वास्तविकता से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है.
लड़कियां यदि चाहे तो उनका स्तर लड़को से सदा ही ऊपर रह सकता है. वे आज भी पूज्या है. आज भी नवरात्री के अवसर पर उनके पैरो को धोकर तथा अपने घरो में उनके पैरो के जल को छिड़क कर पवित्र करने की प्रथा कायम रह सकती है. लेकिन यह उनके ऊपर निर्भर है क़ि वे जनक नंदिनी एवं श्री राम की भार्या के रूप में मर्यादित एवं सीमित होकर रावण के द्वारा हर लिए जाने के बाद भी उनकी तरह माता के रूप में प्रतिष्ठित होना चाहती है या खुली आज़ादी पायी एवं स्वच्छंदता पूर्वक किसी भी पर पुरुष को "ब्वाय फ्रेंड" के रूप में स्वीकार करने वाली शूर्पनखा के रूप में तिरस्कार पाना चाहती है जिसने पहले राम को "प्रोपोज" कर फ्रेंड बनाना चाहा. असफल होने पर लक्षम्ण को 'प्रोपोज' कर "फ्रेंड" बनाना चाहा. और परिणाम स्वरुप अपनी नाक कटवानी पडा.
मै इसी जागरण मंच पर एक ब्लॉग पढ़ा हूँ जिसे श्री सतीश मित्तल जी ने लिखा है "जिसका काम उसी को साजे. और करे तो जूता बाजे" . क्या यहाँ सटीक नहीं बैठता? एक डाक्टर को दवाओं से ही मतलब रखना चाहिए. यदि वह कानून की धाराओं के चक्कर में पडेगा तो पूरा संविधान ही बदलना पडेगा. जैसा आज के क़ानून निर्मात्री सभा (संसद एवं विधान सभा) के सदस्य करते है. जिन्हें यह तक नहीं मालूम क़ि संविधान किसी पान की दूकान पर मिलाने वाला पान मसाला है या फसलो में डाली जाने वाली खाद.
लड़कियां यदि खुद सुरक्षित एवं सम्मानित रहना नहीं चाहेगी तो कोई दूसरा कुछ नहीं कर सकता सिवाय इसे सियासत की अपनी रोटी पकाने के. उन्हें माता-पिता, समाज एवं परम्परा को अंगीकार करना ही पडेगा. 'फ्रेंड" के बजाय 'ब्रदर" बनाना पडेगा. 'पार्टी" के बजाय 'पूजा' एवं धार्मिक कृत्यों में रूचि लेना होगा. "फंसी ड्रेस" के स्थान पर परम्परागत वस्त्र धारण करना पडेगा. और आचरण लड़को की तरह नहीं बल्कि लड़कियों की तरह करना होगा. केवल लड़को को दोष देने से '"आज़ादी" एवं उन्नति नहीं मिल सकती.

 

बाप को कुत्ते की चेन में बांधकर रखा कलयुगी बेटे ने


बाप को कुत्ते की चेन में बांधकर रखा कलयुगी बेटे ने
 
 शिमला में एक कलयुगी बेटे ने अपने बाप को बेड़ियों में जकडकर रखने का कारनामा कर डाला।

मानवता को हिलाकर रख देने वाली यह घटना शिमला के उपनगर संजौली की है जहां एक 78 वर्षीय बुज़ुर्ग मस्तराम को उसके ही बेटे ने करीब तीन महीने से कैद में रखा। इतना ही नहीं, बाप को कैद में रखने के लिए इस कलयुगी बेटे ने बाप को पशुओं को बांधने के लिए प्रयोग की लाए जाने वाली मोटी चैन के ज़रिए बांध रखा था।

पड़ोसियों की खबर के बाद स्थानीय स्वयंसेवी संस्था दी वॉइस के सदस्यों ने बुज़ुर्ग को उसके बेटे की कैद से छुड़ाकर अस्पताल में भर्ती कराया। पुलिस ने बेटे को गिरफ्तार कर लिया, बाद में रिहा भी कर दियाष रिहाई के बाद से बेटा फरार है।

बुज़ुर्ग इस हादसे के बाद सदमे में हैं।
 
 

वरिष्ठ नागरिकों को प्राप्त सरकारी सुविधाएँ

वरिष्ठ  नागरिकों  को  प्राप्त  सरकारी  सुविधाएँ

विकसित  देशों  की  भांति  हमारे  देश  की  सरकार  इतनी  सक्षम  नहीं  है  की  वह  देश  में  मौजूद  सभी  वरिष्ठ  नागरिकों  की  आर्थिक  आवश्यकताओं  को  राजकीय  राजस्व  से   पूरा  कर  सके .जिस  कारण  हमारे  देश  में  वृद्धावस्था  को  अपेक्षाकृत  कठिन  बना  दिया  है .निरंतर  बढ़  रही  वृद्धों  की  संख्या  एक  भयंकर  समस्या  के  रूप  में  आ  रही  है  और  देश  के  लिए  भावी  चुनौती  बन  रही  है .अपने  सीमित  साधनों  के  साठ  भी  वरिष्ठ  नागरिकों  को  अनेक  प्रकार  की  सुविधाएँ  सरकार  दे  रही  है ,जिनकी  जानकारी  का  होना  प्रत्येक  बुजुर्ग  के  लिए  आवश्यक  है .ताकि  वे  उनका  लाभ  ले  सकें . अतः  बुजुर्गो  की  जानकारी  के  लिए  सरकारी  सुविधाओं  का  व्योरा  प्रस्तुत  है .

1.साठ  वर्ष  से  ऊपर  प्रत्येक  नागरिक  को  वरिष्ठ  नागरिक  का  दर्जा  प्राप्त  है  ,और  सभी  सरकारी  सुविधाओं  का  हक़दार  है .

2,सभी  बैंकों  में  सावधि  जमा  राशी  पर  वरिष्ठ  नागरिकों  को  सामान्य  ब्याज  दार  से  आधा  प्रतिशत  अधिक  ब्याज   दिया  जाता  है .

3,सभी  वरिष्ठ  नागरिकों  को  रेलवे  के  किराये  में  चालीस  प्रतिशत  छूट  दी  जाती  है .

4,गरीबी  रेखा  से  नीचे  जीवन  यापन  कर  रहे  प्रत्येक  वरिष्ठ  नागरिक  जो  अस्सी   वर्ष  की  आयु  पर  कर  चुके  हैं ,प्रति  माह  पांच  सौ  रूपए  प्रति  माह  पेंशन  दी  जाती  है .

5, आयेकर  विभाग  के  नियम  में  बदलाव  कर  अब  वरिष्ठ  नागरिकों  की  आयु  सीमा  घटा  कर  साठ  वर्ष  कर  दी  गयी  है .अतः  सभी  वरिष्ठ  नागरिक  आयेकर  छूट  का  लाभ  ले  सकते  हैं .उन्हें  आयेकर  की  धारा  88D,88B,तथा  88DDB के  अंतर्गत  छूट  का  पर्व्धन  है .वर्तमान  में  वरिष्ठ  नागरिक  को  अपनी  दो  लाख  पचास  हजार  तक  की  आए  पर  कोई  आए  कर  देय  नहीं  है .

6,अक्षम  वरिष्ठ  नागरिकों  की   शारीरिक  सहायता  एवं  आर्थिक  आवश्यकताओं  की  पूर्ती  की  जिम्मेदारी  उनकी  संतान  (बेटा  हो  या   बेटी  और  पोता  पोती  )पर  डाली  गयी  है .जिम्मेदारी  न  निभाने  वाली  संतान  को   दंड  का  प्रावधान  रखा  गया  है .अतः  माता  पिता  भरण  पोषण  BILL 2007 की  धारा  4(1) के  अंतर्गत  कानूनी  सहायता  ले  सकते  हैं .

7,भारत  सरकार  द्वारा  जनवरी  13-1999 में  बनायीं  गयी  राष्ट्रिय  निति  के  अनुसार  सभी  एयर  लायंस  में  वरिष्ठ  नागरिकों  के  लिए  50% तक  की  छूट  देने  की  व्यवस्था  राखी  गयी  है .

8,बैंकों  ने  वरिष्ठ  नागरिकों  की  आर्थिक  आवश्यकताओं  की  पूर्ती  के  लिए  ,जो  वरिष्ठ  नागरिक  अपने  भवन  के  मालिक  हैं  और  भरण  पोषण  के  लिए  मासिक  आए  का  विकल्प  ढूंढ  रहे  हैं ,उनके  लिए  पंद्रह  वर्षीय  रिवर्स  मोर्टगेज  योजना  चलायी  गयी  है .इस  योजना  के  अंतर्गत  गिरवी  रखे  गए  भवन  में  बुजुर्गों   को  रहने  का  अधिकार  भी  जीवन  पर्यंत  होगा  और  बैंक  से  निर्धारित  राशी  कर्ज  के  रूप  में  मासिक  या  वार्षिक   किश्तों  में  प्राप्त  होती  रहेगी .यदि  पंद्रह  वर्षीय  योजना  के  दौरान  भवन  मालिक  की  मौत  हो  जाती  है  तो  बैंक  भवन  को  नीलाम  कर  अपना  बकाया  यानि  कुल  कर्ज  और  उस  पर  ब्याज  सहित  वसूल  कर  लेगा ,शेष  राशी  उसके  उत्तराधिकारियों   को  दे  देगा .यदि  उत्तराधिकारी  बैंक  के  सभी  बकाये  को  स्वयं  चुका  देता  है  तो  भवन  को  नीलाम  न  कर  उत्तराधिकारी  को  सौंप  दिया  जायेगा  .

9,भारत  सरकार  ने  परिवार  से  विरक्त  बुजुर्गों  के  प्रवास  के  लिए  प्रत्येक  शहर  में  कम  से  कम  एक  वृद्धाश्रम  बनाने  की  स्वीकृति  दे  दी  है .

10, सरकारी  बसों  में  कुछ  सीटें  वरिष्ठ  नागरिकों  के  बैठने  के  लिए  आरक्षित  राखी  जाती  हैं ,ताकि  सीटों  के  अभाव  में  बुजुर्गों  को  खड़े  होकर  यात्रा  करने  को  मजबूर  न  होना  पड़े .

11,सभी  पब्लिक  काउंटरों  पर  महिलाओं  की  भांति  ,वरिष्ठ  नागरिकों  के  लिए  अलग  लाइन  काउंटर  तक  पहुँचने  की  व्यवस्था  है .

12,जीवन  बीमा  निगम  ने  जीवन  धारा  योजना  ,जीवन  अक्षय  योजना ,सिनिअर  सिटिजन  यूनिट  योजना , मडिकल  इंश्योरंस  योजना  जैसी  अनेकों  योजनाये  बुजुर्गों  के  हितों  को  ध्यान  रखते  हुए  चलायी  जा  रही  हैं .

13,भूत  पूर्व  प्रधान  मंत्री  श्री  अटल  बिहारी  बाजपेई   ने  बुजुर्गों  के  लिए  अन्नपूर्णा   योजना  बनायीं  थी .जिसके  अंतर्गत  प्रति माह  दस  किलो  अनाज  मुफ्त  देने  का  प्रावधान  किया  गया  है .

14, जो  बुजुर्ग  समय  रहते  अपने  उत्तराधिकारी  अथवा  रिश्तेदार  को  उपहार  स्वरूप  या  फिर  उनका  हक़  मानते  हुए  अपनी  संपत्ति  उन्हें  स्थानांतरित  कर  देते  है  परन्तु  बाद  में  अपने  भरण  पोषण  एवं  स्वास्थ्य  सम्बन्धी  अवश्यक्तों  के  लिए  धन  पाने  में  असफल  रहते  हैं  तो वे  त्रिबुनल  में  अपील  कर  अपनी  जायदाद  वापस  ले  सकते  हैं ,संपत्ति  हस्तांतरण  रद्द  करवा  सकते  हैं .



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150 महिलाओं से ठगी


इंदौर। महिलाओं को स्वंय सहायता समूह बनाकर लोन देने वालों ने एक ही इलाके की करीबन 150 महिलाओं के साथ ठगी कर डाली। बदमाश लाखोंं रूपए लेकर फरार हो गया है। ठगाई महिलाएं अपने रूपयों के लिए भटक रही हैं।

रोजड़ी निवासी श्याम ने बताया कि पिछले दिनों तीन लोग गांव में आए थे। उन्होंने गांव में पहले से चल रहे स्वंय सहायता समूहों की महिलाओं से संपर्क किया और उन्हें अलग-अलग समूह बनाने के लिए कहा था। उनका कहना था कि वह लोग पांच लाख तक का लोन इन समूहों को देंगे। पहले से समूहों में काम कर रही महिलाओं ने इन पर विश्वास कर लिया था और करीबन 150 महिलाएं इनके झांसे में आ गई।

उनकी पत्नी और मां भी इस समूह में शामिल हो गई थीं। बदमाशों ने सबसे 1100 रूपए लिए और इसके बाद सभी को पोस्टडेटेड चेक भी दे दिए, लेकिन जब कैश करने की बारी आई तो पता चला कि आरोपी लापता है। बदमाशों ने एक इस तरह आसपास के कई गांवों से भी रूपए जमा किए और भाग निकले हैं। उनके दफ्तर पर भी लोग पहुंचे थे, लेकिन वहां पर भी ताला मिला।

हाथों-हाथ फोटो
बदमाशों ने महिलाओं को अपनी बांतों में उलझा रखा था। बताया जाता है कि कई महिलाओं के पास जब फोटो नहीं मिले तो उन्होंने हाथों-हाथ उनके फोटो निकालकर सदस्य बना लिया था।

पहले भी हो चुकी है ठगी
इससे पहले भी इस तरह की ठगी की कई घटनाएं हो चुकी हैं। कुछ दिनों पहले ही परदेशीपुरा, खजराना, चंदन नगर और विजय नगर क्षेत्र में ठगोरों ने कई महिलाओं से लोन के नाम पर रूपए लिए और फिर फरार हो गए थे।
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भारत में अधिकतर बुजुर्ग अपने बेटों की गालियां झेलते हैं

भारत में 60 वर्ष या इससे ज्यादा की उम्र वाली आबादी के लगभग 31 प्रतिशत बुजुर्गों को अपने परिवार के सदस्यों की अवहेलना, अपमान और गालीगलौज झेलना पड़ता है। एक अध्ययन में पाया गया है कि मुख्य रूप से प्रताड़ित करने वाले और कोई नहीं, बल्कि उनके अपने बेटे होते हैं।

'हेल्प एज इंडिया' की ओर से यह अध्ययन 20 शहरों में कराया गया, जिसमें कुल 5600 लोगों ने भाग लिया। इस अध्ययन में पाया गया कि प्रताड़ित किए जा रहे बुजुर्गों में से लगभग 75 प्रतिशत अपने परिवारों के साथ रह रहे थे। वहीं 69 प्रतिशत बुजुर्ग उस मकान के मालिक खुद थे, जिसमें उनका परिवार रह रहा था।

अध्ययन के आंकड़ों के मुताबिक बुजुर्गों को प्रताड़ित करने वालों में मुख्य रूप से उनके अपने बेटे (56 प्रतिशत) शामिल होते हैं। उसके बाद प्रताड़ना देने वालों में बहुओं (26 प्रतिशत) का स्थान है। 30 प्रतिशत वृद्ध महिलाओं और 26 प्रतिशत वृद्ध पुरुषों ने अपने पुत्र को मुख्य प्रताड़क बताया, वहीं 15 प्रतिशत वृद्ध महिलाओं और आठ प्रतिशत वृद्ध पुरुषों ने अपनी बहु को मुख्य प्रताड़क बताया।

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किसी भी चीज की अति बुरी होती है

ताईवान में रहने वाला शुमितो किसी सामान्य लड़के की ही तरह था। वह अपनी हरेक परीक्षा में 85 फीसदी से 90 फीसदी अंक लेकर आता। कुछ दिनों से वह अपने अभिभावकों से लेटेस्ट स्मार्टफोन दिलाने की जिद कर रहा था। यह देख उसके अभिभावकों ने उससे वादा किया कि अगर वह अपनी वार्षिक परीक्षाओं में स्कूल में शीर्ष रैंक में स्थान बनाने में सफल रहता है, तो वे उसे स्मार्टफोन लेकर दे देंगे। शुमितो ने कड़ी मेहनत की और स्कूल में दूसरी रैंक लेकर आया। नतीजतन उसके अभिभावकों ने उस लेटेस्ट आईफोन दे दिया। यह फोन शुमितो की जिंदगी में टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। अब वह हर समय अपने फोन से चिपके रह कुछ न कुछ सर्च किया करता। उसके माता-पिता को लगता कि वह पढ़ाई-लिखाई से संबंधित वेबसाइट्स या कंटेंट सर्च कर रहा है। लेकिन वास्तव में शुमितो को सोशल नेटवर्किंग साइट्स की लत लग चुकी थी। यहां तक कि अब आईफोन उससे एक मिनट के लिए भी अलग नहीं होता। यह बात उसके माता-पिता ने भी नोटिस की और उसकी बिगड़ती मनोदशा को देख उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। शुमितो को स्मार्टफोन से जुड़े विड्रॉअल सिम्टम्स से लंबे समय तक जूझना पड़ा। उसके पढ़ाई के कीमती दो वर्ष भी इस 'बीमारी' की भेंट चढ़ गए। जाहिर है कि यह स्थिति तीनों पर ही बेहद भारी पड़ी।

हर साल एक नई बीमारी को अपनी सूची में अपडेट करने वाले 'द डायग्नोस्टिक स्टेटिस्टिकल मैनुअल' ने इस साल भी एक नई बीमारी को शामिल किया है। यह है 'इंटरनेट एडिक्शन डिसऑर्डर'(आईएडी)। इसके कारण दिमाग में खून का थक्का जम जाने से दुनिया के विभिन्न देशों में दस लोग काल के गाल में समा चुके हैं। उनकी गलती सिर्फ इतनी थी कि वे दिन भर में 18 घंटे तक कंप्यूटर या स्मार्टफोन से चिपके रहते थे। चीन, कोरिया और ताईवान ने इसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट वाली बीमारी में शुमार किया है। इन तीन देशों में लाखों लोग वेब की असीमित दुनिया के लती पाए गए हैं। खासकर गेमिंग, सोशल मीडिया और वर्चुअल रियलिटी ने इन्हें किसी नशे की तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

यूनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड ने 'अनप्लग्ड' नाम से करीब 200 स्टूडेंट्स पर एक सर्वेक्षण किया। सभी को एक दिन के लिए कंप्यूटर या स्मार्टफोन से अलग रखा गया। उस पूरे दिन उनसे अपने मनोभावों को रिकॉर्ड करने को कहा गया। परिणाम चौंकाने वाले आए। एक ने सोशल मीडिया को 'ड्रग्स' की तरह बताया, तो दूसरे ने स्मार्टफोन के बगैर खुद को गंभीर रूप से 'बीमार' बताया। नई पीढ़ी खासकर अमेरिकी बच्चों में 'इंटरनेट की लत' को लेकर हालिया लांच किताब 'डिसऑर्डर' में कहा गया है, 'ऐसा प्रतीत होता है कि हम तकनीक का चयन करते हैं। लेकिन वास्तव में हम खुद उसकी असीमित संभावनाओं और क्षमता के जाल में फंसते जाते हैं। फोन पर रिंग के तौर पर बजने वाली प्रत्येक आवाज हमें प्रोफेशनल अवसर की तरह लगती है। धीरे-धीरे फोन की 'बीप' या 'रिंगटोन' किसी लत की तरह हमारे मस्तिष्क में पैठ जाती है। ऐसी आवाज सुनाई न पडऩे पर हमें खालीपन समेत कुछ छूट जाने का अहसास होता है।' यही वजह कि लोग धीरे-धीरे स्मार्टफोन जैसे गैजेट्स के लती बन जाते हैं।


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मानवतावादी और उनका मानवधर्म

 

मनुष्य का मूल स्वभाव धार्मिक होता है| कोई भी मनुष्य धर्म से पृथक होकर नहीं रह सकता| मनुष्य के अन्दर आत्मा का वास होता है जो की परमात्मा का अंश होती है| फिर मनुष्य धर्म और ईश्वर से अलग कैसे हो सकता है| मनुष्य का मूल अध्यात्म है और रहेगा| इस दुनिया की कोई भी चीज चाहे वो सजीव हो या निर्जीव, अपनी प्रकृति के विपरीत आचरण करके ज्यादा दिनों तक अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकती| जो मनुष्य अपनी मूल प्रकृति के विपरीत आचरण शुरू कर देते हैं उनका अंत हो जाता है| ये अंत भौतिक नहीं बल्कि आतंरिक होता है| मनुष्य अपनी काया से तो जीवित दिखता है परन्तु उसकी मानवता मर जाती है| वो पशु से भी बदतर हो जाता है|
कुछ लोग जो स्वयं भी अपनी मूल धारा के विपरीत गमन करते हैं और अपनी कुटिल चालों और भरमाने वाली भाषा के प्रयोग से अन्य लोगों को भी ऐसा ही करने के लिए उकसाते हैं, कभी भी मानव नहीं हो सकते| खुद को वो चाहे कितना भी "मानवतावादी" बताते रहें और कहते रहें की वो अपने "मानवधर्म" का पालन कर रहे हैं, ये कदापि सत्य नहीं होता| ऐसे "मानवतावादियों" ने ही आज धरती को नर्क बना के रख दिया है| जहाँ धर्म का लोप हो जाता है वहाँ अधर्म अपना साम्राज्य स्थापित कर लेता है| अधर्म में न कोई नैतिकता है न कोई मर्यादा| उसमें सिर्फ और सिर्फ भोगलिप्सा और कभी न खत्म होने वाली वासनाएं हैं| ये वासनाएं न तो मनुष्य को जीने देती हैं और न ही मरने देती हैं| धर्म को अपनाये बिना इनका त्याग असंभव है|
मानवता के नाम पर चलनेवाले गोरखधंधे में सब कुछ होता है| दानवता का नंगा नाच देखना हो तो उन लोगों को देखिये जिन्होंने धर्म को त्याग दिया है| ऐसे लोग खुलेआम आधुनिकता की अंधी दौड़ का समर्थन करते मिलेंगे| उनके लिए प्रेम महज एक वासनापूर्ति से ज्यादा कुछ नहीं| शीलता को छोड़ के भौंडेपन का प्रचार भी यही मानवतावादी करते हैं| मर्यादाहीनता को निजी मामला बताना हो अथवा हिंसा के प्रति दोहरा रवैया, सब इन्हीं कथित मानवतावादियों की देन है| नशीली वस्तुओं यथा शराब, ड्रग्स आदि इनके लिए मनोरंजन के साधन मात्र हैं| दूसरों को स्वार्थ से दूर रहने की शिक्षा देने वाले ये लोग स्वार्थ में आकंठ डूबे रहते हैं| आज अगर छीनने की भावना बढ़ी है तो इसका कारण यही मानवतावादी हैं जो अपनेआप को सफलता के उस शिखर पर देखना चाहते हैं जहाँ कोई और न पहुंचा हो|
धर्म की गलत व्याख्या करके ये अपनेआप को सबसे बड़ा बुद्धिमान समझ लेते हैं| दो-चार घटिया किस्म की किताबें पढ़ के ये खुद को दार्शनिक समझने लगते हैं| सत्य न कभी पराजित हुआ है और न कभी होगा| धर्म ही जीवन का आधार है| मनुष्य को मोहमाया के बंधनों से कोई मुक्त कर सकता है तो वो केवल धर्म है| सच्चाई तो ये है की "मानवता" की शिक्षा भी मनुष्य को धर्म ने ही दी है| धर्म ने ही मनुष्य को जीवमात्र से प्रेम करना सिखाया है| ईर्ष्या, द्वेष जैसे दुर्गुणों के लिए धर्म में कोई स्थान नहीं है| इन चीजों से धर्म को यही "मानवतावादी" जोड़ते हैं और लोगों को भरमा के अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं|
धर्म तो जीवन है| शाश्वत है, सत्य है| इसको नकारना अपनी अल्पबुद्धि का परिचय देने से अधिक और कुछ भी नहीं है| कोई स्वयं को ही नकारे तो इसे और क्या कहा जायेगा| संसार में आज अगर अपराध है तो उसका कारण लोभ है, वासना है| दुनिया में जो सिर्फ एक आगे निकलने की भावना बढ़ी है उसका कारण मनुष्य की अनंत इच्छाएं हैं| मनुष्य आज स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहा है तो इसकी एकमात्र वजह मनुष्य का धर्म से दूर होना है| अपने मन पर नियंत्रण अत्यंत जरूरी है| मानव और दानव में यही अंतर होता है| दानव अपने मन का गुलाम हो उसके अधीन हो जाता है और मानव अपने मन को अपने अधीन रखता है| अब ये निर्णय तो मानव को ही करना होगा की वो मानव बनना चाहता है या दानव|
 
 
इमोशनल अत्याचार है घातक
साल भर पहले एक फिल्म आई थी -प्यार का पंचनामा। इसके एक दृश्य में नायक अपने ऑफिस के टॉयलेट में छिपकर किसी दूसरी कंपनी के लिए टेलीफोनिक इंटरव्यू दे रहा था। इसी बीच उसकी गर्लफ्रेंड ने बार-बार फोन करके उसे परेशान कर दिया। जब लडके ने उसका कॉल रिसीव किया तो उधर से आवाज आई, फिनायल पीने से कुछ होता तो नहीं? लडके ने घबराकर पूछा, तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो?, वो मैंने फिनायल..। यह सुनते ही लडका इंटरव्यू अधूरा छोड कर उसे बचाने जाता है। लडके को देखकर वह बडी मासूमियत सेकहती है, सो स्वीट ऑफ यू, तुम आ गए। सॉरी जानू..मैं तो सिर्फ यह देखना चाहती थी कि तुम्हें मेरी फिक्र है या नहीं? यह सुनने के बाद लडके की क्या प्रतिक्रिया रही होगी, इसका अंदाजा तो आप लगा ही सकते हैं।


क्यों होता है ऐसा

यह तो बात हुई फिल्म की, लेकिन हमारी जिंदगी भी फिल्मों से ज्यादा अलग नहीं होती। हमारे आसपास कई ऐसे लोग मौजूद होते हैं, जो दूसरों पर इमोशनल अत्याचार करने में माहिर होते हैं। मनोविज्ञान की भाषा में ऐसे लोगों को इमोशनल पैरासाइट या इमोशनल वैंपाइर कहा जाता है। इन्हें रोने के लिए हमेशा किसी कंधे की तलाश रहती है। यह एक तरह का मेंटल मेकैनिज्म है। असुरक्षा की भावना से ग्रस्त ऐसे लोग किसी भी रिश्ते में ऐसा व्यवहार करते हैं। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. भागरानी कालरा कहती हैं, बचपन में माता-पिता का अतिशय संरक्षण या प्यार की कमी। दोनों ही स्थितियां बच्चे के व्यक्तित्व को कमजोर बनाती हैं। बाद में ऐसे लोगों का आत्मविश्वास इतना कमजोर पड जाता है कि ये अपने हर काम में दूसरों की मदद लेने के आदी हो जाते हैं, लेकिन इनमें जिम्मेदारी की भावना जरा भी नहीं होती।


कैसे करें पहचान

1. अपनों को पर्सनल स्पेस न देना

2. मतलब निकल जाने पर पल्ला झाड लेना

3. अपनी बातों से करीबी लोगों के मन में अपराध बोध की भावना को उकसाना

4. आत्मकेंद्रित होना

5. अपनी परेशानियों को दूसरों के सामने बढा-चढाकर पेश करना

6. हमेशा सहानुभूति की इच्छा रखना

7. अपनी किसी भी नाकामी के लिए दूसरों को दोषी ठहराना

8. हमेशा यह शिकायत करना कि कोई मुझे समझने की कोशिश नहीं करता।


अनजाने में होता है ऐसा

ऐसी समस्या से ग्रस्त लोग अपने व्यवहार से अनजान होते हैं, उन्हें जरा भी अंदाजा नहीं होता कि उनके ऐसे रवैये से दूसरों को कितनी परेशानी होती है। किसी भी रिश्ते में ये दूसरों से बहुत कुछ हासिल करना चाहते हैं, पर ख्ाुद कुछ भी देने को तैयार नहीं होते, लेकिन वास्तव में इन्हें अपनों के सहयोग की जरूरत होती है।


संभलकर संभालें इन्हें

1. इन्हें खुद अपना काम करने के लिए प्रेरित करें, ताकि ये आत्मनिर्भर बनें।

2. इनकी बातें ध्यान से सुनें क्योंकि इन्हें अच्छे श्रोता की तलाश रहती है।

3. अगर परिवार में कोई ऐसा सदस्य हो तो सभी को मिलकर उसे इस समस्या से उबारने की कोशिश करनी चाहिए।

4. दांपत्य जीवन में अगर कोई एक व्यक्ति ऐसा हो तो दूसरे पर भी नकारात्मक असर पडता है। समस्या ज्यादा गंभीर रूप धारण कर ले तो पति-पत्नी दोनों को ही काउंसलिंग की जरूरत होती है।

5. अगर ऐसे लोगों के साथ संयत व्यवहार रखा जाए तो इस समस्या को काफी हद तक दूर किया जा सकता है।

 
 
 
 

 

ऊर्जा बढ़ाएं चार स्टेप्स


खुद को तरोताजा करने के लिए चाय, कॉफी की चुस्की या झपकी लेने की जरूरत नहीं है। आप योग से खुद को चुस्त-दुरुस्त कर सकते हैं। यह साबित हो चुका है कि योग से न सिर्फ थकान कम होती है, बल्कि कार्टिसोल हार्मोन भी संतुलित होता है, जिसकी कमी से हमारी एनर्जी खत्म हो जाती है। नीचे दिए गए चार स्टेप करके आप अपनी एनर्जी वापस पा सकते हैं। आप चारों स्टेप की हर पोजीशन में 10 बार गहरी सांस जरूर लें। दूसरी साइड से भी इन पोजीशन को दोहराएं। दिन मंे तीन बार दोनों साइड से इन स्टेप को करें।

1.पुश-अप की पोजीशन में आएं और कमर वाले हिस्से को
ऊपर उठाएं। पांच बार लंबी सांस लें और दाएं पैर को जितना हो सके, उतना ऊपर तक ले जाएं। धीरे-धीरे बाएं हाथ को कोहनी तक फर्श पर लाएं और इसके बाद दोनों हथेली को पूरी तरह फर्श पर टिका लें।

2.फ्दोनों हाथ सीधे करके सामने की तरफ इस तरह झुकें कि 90 डिग्री का कोण बन जाए। दाएं पैर को ऐसे रखें कि वो दोनों हाथों के बीच में हो। बायां पैर हाथों की सीध में उठाकर सीधा करें, इससे शरीर का सारा वजन अपने आप दाएं पैर पर आ जाएगा। दोनों हाथ और कमर का हिस्सा सीधे और जमीन के समानांतर होने चाहिए।

3.दोनों हाथ और पैर जमीन पर टिकाएं। कमर का हिस्सा बाईं तरफ घुमाएं और बायां हाथ छत की तरफ उठा लें। बायां पैर पीछे की तरफ मोड़ लें और बाएं हाथ से उसे कमर के पीछे से पकड़ें। इस पोजीशन में आपका दायां हाथ और दायां पैर जमीन पर टिका रहना चाहिए।

4.खुद को वापस उसी पोजीशन मंे ले आएं, जो आपने तीसरी पोजीशन की शुरुआत में की थी। अपनी मुख्य मांसपेशियों का इस्तेमाल करते हुए खड़े हो जाएं। बायां तलवा दाईं जांघ पर रखें और दोनों हाथ सीधे ऊपर उठा लें।


नींद हमेशा आरामदायक नहीं होती


बच्चे लगातार कई घंटे तक खेलते हैं तो उन्हें थकान नहीं होती। लेकिन शरारत करने पर स्कूल में टीचर ने अगर खड़े रहने के लिए कह दिया तो समझ में आ जाता है कि सीधे खड़े रहना सजा क्यों है। बचपन ही नहीं, लगभग हर उम्र में काफी देर तक लगातार खड़े रहने वालों का हाल कुछ ऐसा ही होता है।
 
दरअसल हमें खड़े रहना, बाकी सभी चीजों से ज्यादा थकाता है। आपने भी लोगों को कहते सुना होगा कि 'मैं कई किलोमीटर पैदल चल सकता हूं, लेकिन सिर्फ एक घंटे खड़े होने से थक जाता हूं।' खड़े रहने से जो थकान होती है, उसकी वजह शारीरिक ही नहीं, मानसिक भी है। बगैर कोई
काम किए खड़े होने की स्थिति में हम बोरियत के शिकार होते हैं। हमारे दिमाग का सारा फोकस सीधे खड़े होने पर रहता है।
पहला कारण
 
खड़े रहते हुए आप कुछ नहीं कर रहे, इसके बावजूद ऐसा लगता है कि यह आपको पैदल चलने से ज्यादा थका रहा है। इससे जुड़ी एक अवधारणा 'गैलरी फीट' है, जिसमें बताया गया है कि किसी आर्ट गैलरी या म्यूजियम में चलना, वॉक करने से कहीं ज्यादा थकाने वाली कवायद होती है। ऐसा क्यों होता है? यहां इसके कुछ जवाब दिए जा रहे हैं, जो कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े मालूम होते हैं।
खड़े रहना आराम करना नहीं: जब हम सीधे खड़े होते हैं, तो हमारा शरीर धीरे-धीरे आगे-पीछे होता रहता है और दबाव पड़ता है टखने पर। इसलिए हमें खड़े रहने की प्रक्रिया के दौरान अपनी मांसपेशियों में तालमेल बैठाना पड़ता है।
फ्सारा दबाव कुछ ही मांसपेशियों पर: जब हम खड़े होते हैं, तो कुछ मांसपेशियों पर ही ज्यादा वक्त तक दबाव बनता है। इसी वजह से पिंडली की मांसपेशियों में थकान होना लाजिमी है। पैदल चलने की प्रक्रिया में कई मांसपेशियों की भूमिका रहती है, ऐसे में दबाव बंट जाता है।
चलने में आराम:जब हम चलते हैं, तो एक वक्त में एक पैर का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में दूसरा पैर और उसकी मांसपेशियों को आराम मिलता रहता है। पैर को जितना आराम मिल रहा है, वह भले कम हो, लेकिन कुल मिला कर यह काफी होता है।
 
दूसरा कारण
खड़े होने के दौरान दिल इतना सक्षम नहीं होता कि टखनों, पिंडलियों और पांव से वापस पर्याप्त खून पंप कर सके, इसलिए इसमें पुराना खून एकत्र होता रहता है। ऑक्सीजन, न्यूट्रिएंट देने वाला और टॉक्सिन हटाने वाला ताजा खून न होने की वजह से मांसपेशियां दर्द महसूस करने लगती हैं। वजह सीधी-सी है। ज्यादा काम और कम भोजन का सीधा मतलब है कि आपकी मांसपेशियां तकलीफ महसूस करेंगी। जब आप चलते हैं तो आपकी मांसपेशियों के लिए इस बढ़े हुए काम की वजह से यह आपके हार्ट की तरफ खून का प्रवाह बना रहता है और मांसपेशियों को हर हाल में ताजा खून मिलता रहता है।
जब आप अपना कामकाजी दिन पूरा होने के बाद पैरों पर गौर करेंगे, तो देखेंगे कि उनमें सूजन आ गई है या फिर जूते कसे हुए लग रहे हैं। इससे निपटने का काम पैर की कुछ नसें करती हैं, जो दिल तक जाती है।
 
तीसरा कारण
खड़े होने पर जो थकान होती है, उसका ताल्लुक दिमाग से भी है। फर्ज कीजिए कि आप खड़े होकर रोजमर्रा का सामान खरीद रहे हैं। ऐसे में आपका फोकस सिर्फ खड़े रहने पर होता है। मुमकिन है कि बीच-बीच में आपका ध्यान सामान उठाने की ओर भी जाए, लेकिन ज्यादातर समय तब भी खड़े होने पर खर्च हो रहा है। कुछ हद तक आप बोर भी हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में आपका शरीर पैरों से आने वाले उन संकेतों को ज्यादा देर तक नजरअंदाज नहीं कर सकता कि वे थके हुए हैं और अब बैठना चाहिए। इसकी वजह से आपका ध्यान पैरों की तरफ जाता है और दर्द ज्यादा महसूस होने लगता है। अब इसकी तुलना दौड़ने या जॉगिंग से कीजिए। आपके दिमाग को यह पता होता है कि सड़कों पर गड्ढे, अवरोध, गाड़ियां और दूसरे लोग भी होंगे। आपके मानसपटल पर इन सभी चीजों की आकृतियां खिंची रहती हैं। आपके कान जो सुन रहे हैं, आपका ध्यान उस ओर भी जाता है। आप पैरों से मिलने वाली प्रतिक्रिया का इस्तेमाल करते हैं, ताकि हर कदम के साथ आने वाली छोटी-मोटी दिक्कत दूर की जा सके। जबकि इस बात से ध्यान हट जाता है कि शुरुआत से ही आप अपने पैरों को थका रहे हैं। आपके पैरों में केवल तभी भीषण दर्द होगा, जब थकान बहुत ज्यादा हो। क्योंकि उस समय आपका दिमाग आसपास के माहौल और चीजों पर ध्यान न देकर दर्द पर ध्यान देगा। इसमें काफी वक्त लगता है और आपकी काफी जॉगिंग हो चुकी होती है। इसके अलावा जब आप दौड़ते हैं, तो शरीर में एड्रेनलिन नामक रस उत्पन्न होता है, जो आपको ज्यादा ऑक्सीजन और पैरों को सपोर्ट मुहैया कराता है। दर्द के सिग्नल का असर भी खत्म करता है।

सांवले हैं तो ज्यादा विटामिन 'डी' लें

विटामिन 'डी'असल में विटामिन नहीं है। यह एक हार्मोन है। जब सूरज की रोशनी हमारी त्वचा पर पड़ती है, तब हमारा शरीर इस हार्मोन को बनाता है। फिर यह कोलेस्ट्रॉल जैसे पदार्थ में बदलने के बाद आखिरकार विटामिन बन जाता है। इसकी खास पहचान कैल्शियम और फॉस्फोरस को पचाने में मददगार होने की वजह से है। इसी वजह से हड्डियों को स्वस्थ रखने के लिए विटामिन 'डी' जरूरी है। नई रिसर्च में कहा जा रहा है कि विटामिन 'डी' ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने, कैंसर से लड़ने और रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ाने में मददगार है। नवंबर 2010 में अमेरिकन इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिसिन ने विशेषज्ञों की एक सभा में शरीर के लिए जरूरी विटामिन 'डी' की मात्रा को लेकर  अपनी सिफारिशें जारी की हैं जिसे इंटरनेशनल यूनिट्स (आईयू) में मापा जाता है। इन सिफारिशों के मुताबिक 1-70 साल की उम्र तक के लोगों के लिए 600 आईयू विटामिन 'डी' पर्याप्त है। 70 साल से ज्यादा उम्र के लोगों के लिए यह 800 आईयू होना चाहिए। पहले बताए गए 400 आईयू विटामिन 'डी' की तुलना में यह बहुत ज्यादा है। इस वजह से उम्मीद की जा रही है कि अक्सर सामने आने वाली विटामिन 'डी' की कमी संबंधी शिकायतें अब दूर होंगी। लेकिन सूरज की रोशनी के जरिए विटामिन 'डी' हासिल कर पाना कई लोगों के लिए चुनौती भरा काम है। जिन लोगों के शरीर में आमतौर पर विटामिन 'डी' की मात्रा कम पाई जाती है, उनमें शामिल हैं:

-जिनकी त्वचा का रंग गहरा होता है
-जो लोग मोटापे के शिकार होते हैं
-घर से बाहर धूप में कम निकलते हैं
-सनस्क्रीन लोशन का इस्तेमाल करते हैं
-धूप में निकलते वक्त उनका पूरा शरीर कपड़ों से ढंका होता है
-ऐसे लोगों को पेट में जलन, डायरिया और पाचन संबंधी बीमारियां होती हैं। इस वजह से इनके लिए विटामिन 'डी' को पचाना मुश्किल हो जाता है।

भोजन शरीर के लिए जरूरी विटामिन हासिल करने का सबसे अच्छा तरीका है, लेकिन विटामिन 'डी' के मामले में ऐसा नहीं है। यह सामन, टुना और सार्डीन मछलियों और अतिरिक्त पोषक तत्वों से तैयार किए गए आहार जैसी कुछ गिनी-चुनी चीजों में ही मिलता है। इनमें एक बार के आहार में 100 आईयू विटामिन 'डी' मिल जाता है। विटामिन 'डी' का सही मात्रा में सुरक्षित है और यह सेहत के लिए अच्छा भी है। ऐसे में विटामिन 'डी' प्राप्त करने के लिए इन्हें सप्लिमेंट्स यानी कैप्सूल के रूप में लेना अच्छा है।
 

 

दहेज के लिए हर किसी से रेप का शिकार हुई युवती


व्यवहार
य ह युग व्यवहार का है। आप कितने व्यावहारिक हैं, यह उस
समय पता चलता है जब आप किसी मुसीबत में हों। मुसीबत
यानी किसी सरकारी काम से किसी कार्यालय में जाना पड़ जाए
तो आपको नानी-दादी याद आने लगती है।


वहीं तो व्यवहार काम आता है। ऎसे स्थानों पर अक्सर टेबल के
नीचे से हाथ का व्यवहार रिश्तों में मित्रता के भाव पैदा करता है।
दफ्तरों में जिन कर्मचारियों को टेबल के नीचे हाथ के व्यवहार की
कला आती है, उनका हाथ कभी खाली नहीं रहता और वे अपने
साहबों के सामने टेबल पर शान से बैठ सकते हैं, क्योंकि सामने
से साहब के टेबल के नीचे से आए हाथ को बंद करने की क्षमता
उनमें होती है। हाथ होते भी नीचे से मिलाने के लिए ही हंै।



हमारे लापरवाह किस्म के अधिकारी कभी टेबल के ऊपर से कुछ
लेने की गलती करते हैं और फिर पछताते हैं। अब इस "अर्थ"
के साथ भी दिक्कत है। यह कब बढ़ जाती है ,पता ही नहीं
चलता। आदमी की नौकरी की कमाई जितनी हो उससे कई
गुना अर्थप्राप्ति हो जाया करती है।


अब वे पूछें कि इतनी दौलत कहां से आई तो बेचारा अफसर
क्या जवाब दे? लक्ष्मी किसी से कहकर थोड़े ही आती है। "अर्थ"
शब्द में ही कई अर्थ छिपे हुए हैं, जो जितनी कोशिश करे,
उतने अर्थ मिल सकते हैं। अर्थ से कई अनर्थ भी हो जाते हैं,
पर उससे घबराने की आवश्यकता नहीं। आखिर जो "कुछ"
करेगा वही तो गलती करेगा।


"अर्थ" के अर्थ को जो गंभीरता से समझेगा उसी से अनर्थ
भी होगा। समझदार किस्म के लोग अक्सर यह कहते हैं
कि यह जगत नश्वर है। आज तक कोई भी अपने साथ
एक कौड़ी नहीं ले जा सका। जब ले जा नहीं सकते तो इकटा
करने से क्या फायदा। जीवन का भरोसा भी नहीं। यदि इसका
वेलीडिटी पीरियड होता तो उतने टाईम की एफ.डी करवा
सकते थे, मगर यह संभव नहीं है। इसलिए मानव को धन
संग्रह के लिए कभी लालची नहीं होना चाहिए।


यह सैद्धांतिक बात है और हम जानते हैं कि इस तरह
की बातें व्यक्ति तभी सोचता है, जब उसे कुछ कर
दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता। असल बात तो
व्यावहारिक होने की है। व्यवहार के बीच कई उत्प्रेरक
आ चुके हैं। धन भी उनमें एक है। इसमें व्यवहार का
क्या दोष?

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दहेज के लिए हर किसी से रेप
का शिकार हुई युवती
Rape























भोपाल।।
मध्य प्रदेश के सागर जिले में दहेज की मांग पूरी न
कर पाने के कारण एक 20 साल की युवती को ससुरालवालों के
जुल्म का शिकार होना पड़ा। पिछले तीन साल से महिला को
तबेले में जंजीरों से बांध कर रखा गया। इतना ही नहीं, इस
दौरान उसके पति, रिश्तेदारों और यहां तक कि पड़ोसियों ने
बार-बार उसके साथ बलात्कार किया।

युवती पर जुल्म की इंतहा यह थी कि तीन सालों तक
उसका रेप किया गया। इस साल मई में 50 हजार रुपये के
लिए उसे एक महाजन को बेच दिया गया। सिर्फ इसलिए
क्योंकि उसके परिवारवालों के पास दहेज देने के लिए पैसे
नहीं थे। युवती एक बार काफी बीमार हो गई, उस वक्त
एक पड़ोसी उसे अस्पताल ले गया, लेकिन उसने भी
अस्पताल ले जाते समय कथित तौर पर उसका रेप किया।
युवती के साथ हुए इस बर्बर व्यवहार का उस समय पता
चला, जब उसके एक रिश्तेदार ने सौभाग्य से उसे महाजन
के घर पर देख लिया और इस बात की जानकारी उसके
परिवारवालों को दी।

1 जुलाई को महिला अपने रिश्तेदारों के साथ राहतगढ़ पुलिस
स्टेशन गई और इस अपने ऊपर हुए जुल्म ही यह भयावह
कहानी सुनाई। पुलिस अधिकारी एस. पी सागर के अनुसार,
महिला की शादी सागर जिले के पराश्री टूंडा गांव के आनंद
कुर्मी के साथ पांच साल पहले हुई थी। शादी के कुछ दिन
बाद से ही ससुरालवालों ने दहेज के लिए उसे मानसिक
और शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना शुरू कर दिया।

पीड़िता के किसान पिता रामकिशन ने बताया, 'शादी के
समय ससुरालवालों ने एक लाख रुपये की मांग की थी,
जो उन्हें दे दिए गए थे। लेकिन वह बार-बार चीजों की मांग
करने लगे। उन्होंने कलर टीवी, मोटरसाइकल, ट्रैक्टर के
साथ-साथ एक लाख रुपये नकद और मांगे। इसके लिए
बार-बार उन्होंने मेरी बेटी के साथ मारपीट की।' रामकिशन
ने कहा, जब मेरी बेटी गर्भवती हुई तो सास और परिवार के
दूसरे लोगों ने मिलकर जबरन उसका गर्भपात करवा दिया।
शादी के दो साल बाद उन लोगों ने कहा कि अब उनकी बेटी
वहां नहीं रह सकती।'

इसके बाद ससुरालवालों ने उसे तबेले में गाय-भैसों के साथ
जंजीर से बांधकर रखा। कुछ दिन बाद उसका पति आनंद
कुर्मी उसे पास के एक गांव खुरई में राम सिंह नाम के अपने
रिश्तेदार के यहां छोड़ आया। राम सिंह और उसके बेटों नरेंद्र
और लोकेंद्र ने युवती को घर में बंद करके रखा और करीब 20
दिन तक उसके साथ रेप किया।

इसके बाद राम सिंह ने उसे एक दूसरे गांव महुना के महाजन
द्वारका प्रसाद को उसे बेच दिया। यहां भी उसके साथ बार-बार
रेप किया गया। इस बीच एक दिन महिला काफी बीमार पड़ गई
तो महाजन का पड़ोसी खड़ग सिंह उसे अस्पताल ले गया,
लेकिन रास्ते में उसने भी उससे रेप किया।

बाद में महाजन के घर लौटते समय महिला को रिश्तेदार ने देख
लिया और पहचान लिया। तब जाकर महिला के घरवालों को
इसकी जानकारी मिली और किसी तरह उसे वहां से छुड़ाया
गया। 28 जून को महिला को छुड़ाकर उसके घर वाले अपने
 पास ले आए और दो दिन बाद इस मामले की रिपोर्ट पुलिस
 मे लिखवाई।

पुलिस ने महिला के पति, ससुरालवालों, रेप के दूसरे
आरोपियों सहित महाजन के खिलाफ केस दर्ज किया है।
फिलहाल पुलिस ने तीन आरोपियों जिसमें युवती के
साथ अस्पताल ले जाते समय रेप करने का आरोपी खड़ग
सिंह भी शामिल है, को गिरफ्तार किया है।




हर चीज का होता है एक जीवनचक्र

पुरुष के हाथ से किसी बच्चे का पिता बनने का सबसे सुरक्षित समझा जाने वाला जॉब भी अगले दस सालों में छिन जाएगा, क्योंकि इस जॉब की लाइफसाइकिल बदल रही या खत्म हो रही है। हर जॉब की एक लाइफसाइकिल होती है और इसे खत्म होने से बचाने के लिए इसके तौर-तरीकों में बदलाव करना जरूरी है।

इस दुनिया में हरेक उत्पाद या इंसान समेत प्रत्येक प्रजाति का एक जीवनचक्र होता है, जिसके बाद यह खत्म हो जाता 
या मर जाता है। इसी तरह हर जॉब की भी एक लाइफसाइकिल होती है और यदि इसमें अपग्रेडेशन या बदलाव न किया जाए, तो यह कुछ समय बाद मरने लगता है। इसी वजह से कहते हैं कि दुनिया में एक ही चीज स्थायी है और वह है बदलाव। सजीव प्राणियों का सर्वाधिक अहम जॉब है प्रजनन। हजारों वर्र्षों से तमाम प्रजातियों के नर व मादा साथ मिलकर अपनी संतति को आगे बढ़ाते चले आ रहे हैं। लेकिन अब यह चक्र पूरा हो गया है। नए शोध से पता चला है कि मादा द्वारा नर प्रजाति की मदद के बगैर भी बच्चे पैदा किए जा सकते हैं। हाल ही में दो मादा चूहों ने मिलकर एक चुहिया को जन्म दिया है, जिसका नाम कगुयु रखा गया है। जापान में शोधार्थी दो अंडाणुओं को एक साथ जोड़ते हुए इनसे एक भ्रूण को विकसित करने में सफल रहे, जिसे बाद में एक वयस्क चुहिया की कोख में प्रत्यारोपित कर दिया गया।

पिछले हफ्ते अपनी लंदन यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात भारतीय मूल की लंदन-बेस्ड बॉयोलॉजिस्ट व जेनेटिसिस्ट आरती प्रसाद से हुई, जिनकी अगले महीने एक किताब 'लाइक ए वर्जिन : द साइंस ऑफ सेक्सलेस फ्यूचर' आने वाली है। वह अपनी किताब में लिखती हैं कि किस तरह महिलाएं किसी पुरुष के बगैर बच्चा पैदा कर सकती हैं। उनकी किताब, जो भारत में अगस्त में प्रकाशित होगी, में यह भी बताया गया है कि किस तरह पुरुष भी खासतौर पर उन्हीं के लिए बनी सिलिकॉन कोख के जरिए गर्भधारण कर सकते हैं। बड़े जंतुओं में वर्जिन बर्थ के मामले पहले भी प्रकाश में आते रहे हैं। आरती की किताब में दुनियाभर के ऐसे कई प्राणियों की केस स्टडीज हंै। इन्हीं में से एक बोनट-हेड मादा शार्क भी है, जिसे एक अमेरिकी जंतु वाटिका में अलग-थलग रखा गया था और जिसका कभी नर शार्क से आमना-सामना नहीं हुआ। इसके बावजूद उसने वयस्क की तरह एक स्वस्थ नन्हीं शार्क को जन्म दिया।

1980 से वैज्ञानिक बच्चे पैदा करने की ऐसी प्रक्रिया पर काम कर रहे थे, लेकिन पहली सफलता टोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर में दर्ज की गई। अब 2012 में वैज्ञानिक लेबोरेटरी में इंसान की बोन-मैरो कोशिकाओं से अंडाणु व शुक्राणु तैयार करने में सफल रहे हैं। इससे पुरुष व महिलाओं को विपरीत लिंगियों की सहायता के बगैर अपने बच्चे पैदा करने में मदद मिलेगी। इंसान व चूहे की जेनेटिक संरचना एक जैसी होती है। इसलिए यदि ऐसा चूहों में संभव है, तो इंसानों में भी मुमकिन हो सकता है। एक बाधा यह है कि दो अंडाणुओं के सम्मिलन से एक भ्रूण के विकास को तो गति मिल सकती है, लेकिन यह भ्रूण मादा होगा। यदि आपको नर शिशु चाहिए, तो उसके लिए कुछ अलग तकनीक अपनानी पड़ेगी।

आरती अपनी किताब के आखिर में लिखती हैं कि अगले दस से पंद्रह वर्र्षों में यह तकनीक क्लीनिक्स में इस्तेमाल के लायक हो जाएगी। दुनियाभर में नपुंसकता की दर जिस तेजी से बढ़ रही है, उसमें ऐसी रिसर्च इंसानी पीढिय़ों को प्रजनन के वैकल्पिक रूपों के जरिए पनपने में मदद करेगी। इससे लगता है कि अगले दस वर्र्षों में पुरुष शिशुओं के निर्माण का जॉब भी खो देंगे और प्रजनन की प्रक्रिया नए सिरे से परिभाषित होगी।


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दलाल+पीडी+कर्मचारी=खूनी कारोबार



खून की खरीद-फरोख्त के धंधे में निजी ब्लड बैंक के कर्मचारी, दलाल और प्रोफेशनल डोनर (पीडी) की तिकड़ी काम कर रही है। प्रबंधन ब्लड बैंक चलाने के लिए दलालों को प्रश्रय दे रहे हैं और दलाल प्रोफेशनल डोनर का नेटवर्क तैयार कर खून उपलब्ध करा रहे हैं। इस तिकड़ी ने शहर में रक्त का अवैध बाजार खड़ा कर दिया है। सूत्र बताते हैं कि अधिकतर निजी ब्लड बैंकों का काम प्रोफेशनल डोनर के बिना नहीं चलता। दलाल पीडी का नेटवर्क तैयार करते हैं और इन्हें ब्लड बैंक तक लाते हैं। पीडी चंद रूपयों के लालच में खून बेच देते हैं।

लालच का रक्तदान
रक्तदान के नियमों के मुताबिक कोई रक्तदाता एक बार रक्तदान करने के बाद तीन माह बाद ही अगला रक्तदान कर सकता है। पर पीडी के मामले में सेहत की हिफाजत के इस नियम को भी ब्लड बैंक व दलाल ताक पर रख देते हैं। ब्लड बैंक की जरूरत के कारण कई बार पीडी सप्ताह भर में या 15 दिन में ही दोबारा ब्लड दे देता है। ब्लड बैंक भी एचबी बढ़ाने के लिए पीडी को आयरन की गोलियां खिलाते रहते हैं।

सेहत के लिहाज से यह खतरनाक प्रैक्टिस है। एक बार में ब्लड डोनर का अधिकतम 300 एमएल रक्त ही लिया जा सकता है, लेकिन ब्लड बैंक के धंधे का एक काला सच और भी सामने आया है। एक ब्लड बैंक के कर्मचारी ने बताया कि कई बार प्रोफेशनल डोनर की जानकारी के बिना 300 की जगह 500 एमएल तक ब्लड निकाल लिया जाता है।

जांच का शॉर्टकट
जब कोई डोनर ब्लड बैंक जाता है, तो उसके रक्त के नमूने के पांच टेस्ट होते हैं। इसमें एचआईवी, हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी, वीडीआरएल और मलेरिया की जांच शामिल हैं। सामान्य तौर पर इन जांचों की प्रक्रिया पूरी होने में तीन-चार घंटे लगते हैं। इससे पता चलता है कि रक्तदाता का ब्लड अन्य व्यक्ति को चढ़ाने लायक है या नहीं? पर कुछ निजी ब्लड बैंकों में शॉर्टकट अपनाया जाता है। इससे मरीज को संक्रमित ब्लड चढ़ने का खतरा बढ़ जाता है। आमतौर पर नशेड़ी, ऑटो चालक, पान वाले आदि पीडी के रूप में काम करते हैं। नशेड़ी पीडी या किसी बीमारी से ग्रस्त डोनर का ब्लड चढ़ जाए तो इससे मरीज को संक्रमण का खतरा हो सकता है। मरीज को बैठे-बिठाए कोई अन्य बीमारी हो सकती है।

निचले कर्मचारी भी शामिल
कुछ जगह अस्पताल और नर्सिüग होम में काम करने वाले गार्ड, निचले स्तर के कर्मचारी भी इस धंधे में शामिल होते हैं। भोपाल के सरकारी ब्लड बैंकों के आसपास भी इस तरह के दलालों की उपस्थिति बताई जाती है। निजी ब्लड बैंक के अलावा ये दलाल सरकारी अस्पतालों में भी घुसपैठ बनाने की कोशिश करते हैं। स्वैच्छिक रक्तदान की कमी के कारण इन तत्वों का धंधा चल रहा है।


मोबाइल पर चलता है पूरा नेटवर्क
ब्लड की खबर के साथ जोड़ खून के दलालों का नेटवर्क मोबाइल पर चलता है। दलाल सरकारी और प्रायवेट अस्पतालों के पार्किüग कर्मचारी, चपरासी, गार्ड, सफाईकर्मी, आसपास की चाय और पान की दुकान वालो से संबंध स्थापित करते हैं। इसके बाद इन्हें अपना मोबाइल नंबर दे देते हैं। साथ ही यह भी बताते हंै कि अगर किसी को ब्लड की जरूरत हो तो संपर्क कर लेना, इसके बदले सूचना देने वाले को कमीशन देने का प्रलोभन भी दिया जाता है।
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ग्रामीण विकास के रोड़े



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वैसे तो भारत में ग्राम पंचायतों की अवधारणा सदियों पुरानी है, लेकिन आजादी के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाने की कोशिश की गई है। खासकर संविधान के 73वें संशोधन में पंचायतों को वित्तीय अधिकारों के अलावा ग्रामसभा के सशक्तिकरण की दिशा में अनेक योजनाएं बनीं। यही वजह है कि आज देश के लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित हो रहे हैं। वहीं केंद्र सरकार इन पंचायतों के विकास लिए अपने खजाने से सालाना अरबों रुपये आवंटित कर रही है ताकि गांवों का सही विकास हो सके, लेकिन इतनी धनराशि आने के बावजूद देश में गांवों की बदहाली दूर नहीं हो पा रही है। असल में ग्राम स्वराज और ग्राम्य विकास का जो सपना महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने देखा था वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। जिस तरह संसदीय लोकतंत्र में देश के सर्वोच्च प्रतीक संसद और विधानसभाओं का महत्व है उसी तरह ग्रामसभा लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई है। इसे सामान्य शब्दों में हम ग्राम संसद भी कहते हैं, लेकिन कमजोर अधिकारों के कारण ग्रामसभा उस तरह मजबूत नहीं हो पाई जैसी परिकल्पना राष्ट्रपिता और लोकनायक जयप्रकाश ने की थी। जिस तरह सांसद और विधायक करोड़ों रुपये की निधि का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं करते उसी तरह पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी कमोबेश उसी राह पर चल रहे हैं।

 

ग्राम स्वराज का असल मकसद तभी पूरा होगा जब गांवों की सत्ता में ग्रामीणों को उचित भागीदारी मिले और विकास से जुड़े तमाम फैसले लेने का अधिकार ग्राम सभा को हो। उदाहरण के तौर पर गांव में सड़कें कहां बनानी हैं, ग्रामसभा की जमीन का किस तरह व्यावसायिक इस्तेमाल हो, इसके अंतिम निर्णय का अधिकार कलेक्टर और बीडीओ को नहीं, बल्कि पंचायत के सरपंच और प्रधान को मिलना चाहिए। संविधान के 73वें संशोधन के बाद दिल्ली से जारी होने वाली धनराशि पंचायतों के विकास के लिए पहुंचती है। अमूमन हर पंचायत में पांच साल के दौरान लाखों रुपये मिलते हैं। अगर इन पैसों का सही जगह इस्तेमाल किया जाए तो देश के समस्त गांवों की तस्वीर बदल सकती है, लेकिन इस भ्रष्ट व्यवस्था में ऐसा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि पंचायतों को मिले रुपये कहां खर्च किए जाएं यह फैसला ग्रामीणों की सहमति के बगैर नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पंचायतों के प्रधान और सरपंच अपने चहते लोगों और अधिकारियों से साठगांठ कर उन योजनाओं को मंजूरी दिलाते हैं जिसमें बंपर कमीशन काटने की गुंजाइश होती है। यही वजह है कि देश के अधिकांश राज्यों में ग्रामसभा को निरंतर कमजोर करने की साजिश की जा रही है। इस मामले में बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है। राज्य के तकरीबन सभी गांवों में अक्षय ऊर्जा योजना के नाम पर ग्राम प्रधानों ने सौर बिजली लगाने की योजना बनाई।

 

बावजूद इसके बिहार के गांवों में अंधेरा अब भी कायम है, क्योंकि लगभग नब्बे फीसदी सोलर लाइटें खराब हो चुकी हैं। इस तरह बड़े पैमाने पर सोलर लाइटें लगाने की एकमात्र वजह थी मोटा कमीशन। अगर विकास योजनाएं ग्रामीणों की सहमति से बनाई जाए तो इस तरह की मनमानी और लूटपाट को रोका जा सकता है। गांवों का विकास ग्रामीणों की मर्जी से होना चाहिए ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि ग्रामसभा को अधिक से अधिक विकेंद्रीकृत किया जाए। अगर संभव हो तो उसे वार्ड सभा और टोला सभा में तब्दील किया जाए, क्योंकि जिस तरह गांव का प्रधान कुछ हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उसी तरह एक पंचायत में चुने जाने वाले दर्जनों पंचायत सदस्य और पंच भी सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाना ठीक नहीं। इस तरह के सौतेले बर्ताव से भला हम गांवों का सर्वागीण विकास कैसे कर पाएंगे? दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल इंपावरमेंट ऐंड रिसर्च जो ग्रामीण विकास के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के अभियानों से जुड़ी है। इस संस्था द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि पंचायतों के चुनाव में भी धनबल और बाहुबल का उपयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तरह होने लगा है। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव में सैकड़ों प्रत्याशी ऐसे थे जिनके पास करोड़ों की चल-अचल संपत्ति थी।

 

पंचायतों के चुनाव में मारामारी का आलम यह था कि ग्रामप्रधान और जिला पंचायत की एक सीट के लिए औसतन डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों ने नामजदगी के पर्चे भरे। सीएसईआर के अनुसार उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनाव में ग्रामप्रधान के उम्मीदवारों ने जहां पांच लाख से सात लाख रुपये खर्च किए वहीं जिला पंचायत के लिए उम्मीदवारों ने औसतन दस लाख से सोलह लाख रुपये पानी की तरह बहाए। लोकतंत्र की नर्सरी कहे जाने वाले ग्राम पंचायतों के चुनाव में धन की यह धार सकारात्मक संकेत नहीं है। इन सबके बावजूद ग्राम विकास की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं। निश्चित तौर पर बदलाव अचानक नहीं होता, लेकिन इसकी शुरुआत तो हो ही सकती है। उम्मीदों की ऐसी ही एक किरण कृष्ण नगरी मथुरा के मुखराई पंचायत में देखने को मिली। गोवर्धन तहसील से सटे इस पंचायत के प्रत्येक जनशिकायतों का समाधान ग्रामसभा की खुली बैठकों में ही किया जाता है। कुछ अरसे पहले यहां के ग्रामीण भी अन्य गांव वालों की तरह मानते थे कि गांव के विकास में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। यही वजह था कि यहां के लोग अपने प्रधान और जिला पंचायत के सदस्यों से उनकी कार्यशैली के बाबत कोई पूछताछ नहीं करते थे। गांव के मुखिया विकास की कौन-कौन सी योजनाएं संचालित करते हैं, ग्राम सभा की बैठकें नियमित क्यों नहीं होती हैं आदि बातों से उन्हें कोई सरोकार नहीं था।

 

हालांकि अब ऐसा नहीं है, क्योंकि मुखराई लोग ग्रामीण विकास को लेकर पूरी तरह सजग हो चुके हैं। यहां के कुछ लोग सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नित नई जानकारियां हासिल कर रहे हैं। मुखराई के लोगों का मुख्य पेशा कृषि और पशुपालन है। हालांकि कुछ समय पहले नीलगायों की वजह से यहां के किसान काफी त्रस्त थे। ग्रामीणों ने इस बाबत लिखित सूचना जिला प्रशासन को पूर्व में भी देते रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। नतीजतन यहां के लोगों ने इस समस्या को ग्राम सभा की खुली बैठकों में उठाया और उसके बाद यह मामला राज्य के शीर्ष अधिकारियों के पास पहुंचा। आपसी एकजुटता की वजह से यहां की ग्रामसभा आज पूरी तरह सशक्त बन चुकी है। इसे ग्रामीणों की चेतना का ही असर कहें कि मुखराई के ग्राम प्रधान अपने विकास कार्यो का लेखा-जोखा और एक-एक पैसे का हिसाब ग्राम सभा की बैठकों में देते हैं। बेशक देवभूमि मथुरा की मुखराई पंचायत देश भर के ग्राम सभाओं के लिए एक मिसाल है। अपनी मुखरता से मुखराई के लोग ग्रामीण विकास की दिशा में एक नई मिसाल कायम कर रहे हैं।

धुंए की धीमी मौत के तथ्य

1- धूम्रपान (smoking) करते समय आप निकोटिन, पायरिडीन, अमोनिया, कार्बन मोनो ऑक्साइड, फ्यूरल, फर्माल्डिहाइड, एसीटोन, आर्सेनिक एसिड जैसे 4800 घातक रसायनों (lethal chemicals) को अपने फेफड़ों और खून मे भरते हैं जिनमें से 69 (International Agency For Research On Cancer के अनुसार 43) कैंसर के लिए सीधे उत्तरदायी हैं।
2- एक सिगरेट से आप 100 mg निकोटिन शरीर में भरते हैं, 500 mg एकसाथ इंजेक्शन से ले लें तो तुरन्त मृत्यु निश्चित है।3- एक सिगरेट में पाया जाने वाला 30-40 mg "टार" कैंसर का सीधा पिता होता है।
4- धूम्रपान करने वाले 61% पुरुषों व 62% महिलाएं 30-69 वर्ष की आयु के बींच किसी भी समय मृत्यु के मुंह मे समा सकते हैं।
5- धूम्रपान से भारत में प्रति मिनट लगभग 2 लोग मौत के मुंह मे समा जाते हैं।
6- भारत में कुल बीमारियों की 40% तम्बाकू धूम्रपान से होती हैं।
7- अमेरिका में धूम्रपान से प्रतिवर्ष 4,4000 लोग मरते हैं।
8- पूरे विश्व में प्रतिवर्ष 50 लाख से 60 लाख लोग तम्बाकू से होने वाली बीमारियों से मरते हैं।
9- WHO के अनुसार अप्रत्यक्ष धूम्रपान से प्रतिवर्ष मरने वालों की संख्या 6,00,000 है।
10- धूम्रपान ब्लडप्रैशर, हार्ट अटैक, क्रोनिक ब्रोंकाइटिस, एस्फ़ीसीमा, अलसर, टोबैको एम्ब्लीयोपिया (अंधापन), लीवर सिरोसिस आदि पचासों दर्दनाक बीमारियों के लिए सीधे प्रवेशद्वार है।
11- तम्बाकू जनित बीमारियों के इलाज में भारत में प्रतिवर्ष 30,800 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं जबकि भारत का 2012 का स्वास्थ्य बजट 34,488 करोड़ रुपए रहा, 2011 में यह केवल 30,456 करोड़ ही था।
12- अमेरिका में धूम्रपान से पैदा होने वाली बीमारियों पर कुल $150billion अर्थात 8,40,000 करोड़ रुपए खर्च होते हैं, यदि अमेरीकन बनने की कोशिश में लगे आज के युवा यह बराबरी कर लेते हैं तो देश वर्तमान बजट का कुल 59% धुएँ पर खर्च करना होगा जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा पर बजट का 11-12% ही (2011-12 में अधिकतम लगभग 12.97%) दिया जा पाता है|
13- अमेरिका के कम से कम 20% किशोर धूम्रपान के शिकार हैं और ऐसे ही 3000 बच्चे रोज सिगरेट पीना शुरू कर देते हैं।
14- भारत में इन नशों के लती 50% किशोर इनके परिणाम स्वरूप होने वाली कैंसर जैसी बीमारियों से मरेंगे।
15- एक सर्वेक्षण के अनुसार अभी भारत में 15 से 18 वर्ष की आयु के 15% बच्चे तम्बाकू/धूम्रपान के फंदे में फंस चुके हैं।
16- सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय (Ministry of Commerce and Industry) के अनुसार भारत में वर्ष 2011-12 में 116.166 अरब (billion) सिगरेट बेंची गईं। अर्थात भारत के प्रति व्यक्ति को 96 सिगरेट खफ़त की जा रही हैं। इस वर्ष के आंकड़ों के अनुसार 4.19% अधिक उत्पादन हुआ।
17- मैंने गणना की तो पाया कि 38 करोड़ 72 लाख 20 हजार वृक्षों को केवल 2011-12 में ही सिगरेट पिलाने के लिए काटा गया।
18- विभिन्न मूल्यों पर उपलब्ध मंहगी सस्ती सिगरेट का औसत मूल्य यदि 3 रुपए माना जाए तो लगभग 348 अरब रुपये गत वर्ष धुएँ में उड़ा दिये गए जोकि इसी वर्ष भारत के कुल बजट से लगभग दोगुना है।
यह आंकड़ें एक बानगी मात्र हैं क्योंकि यदि एक पेड़ की कीमत, एक पेड़ से होने वाली वातावरणिक क्षति का आंकलन करें, फिर तदनुसार 387220000 पेड़ काटने के परिणाम का आंकलन करें, इससे होने वाले वातावरणिक परिवर्तन तथा प्रति व्यक्ति क्षति निकालें तो ये आंकड़ें बहुत आगे पहुँच जाएंगे। तम्बाकू-धूम्रपान आपके व्यक्तिगत जीवन को ही नहीं वरन पूरे देश, पूरी पृथ्वी व प्रत्येक मनुष्य को मौत के मुंह में धकेल रहे है। आपको सिगरेट पिलाने के लिए सरकार भले ही कंपनियों को निमंत्रण देती है किन्तु तम्बाकू दिवस पर तम्बाकू/सिगरेट की बुराई में करोड़ों रुपये विज्ञापन पर खर्च करने पड़ते हैं। यह बड़ी विडम्बना के साथ साथ धूम्रपान के कारण देश का एक अतिरिक्त खर्च है। यह विडम्बना मौत के इस भारी भरकम व्यापार में छिपी है जिसकी ताकत केवल सरकारों को ही नहीं वरन विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य संस्था WHO को भी इस मामले पर ठोस कदम उठाने से रोक देती है। मार्च में WHO द्वारा कंपनियों के दबाब में एल्कोहौल उपभोग में 2025 तक 10% कमी के अपने लक्ष्य को अपनी प्रस्तावना सूची से हटा लिया।
इसी जानकारी के साथ मैं सभी धूम्रपान करने वाले बंधुओं को तम्बाकू दिवस (मुक्ति) दिवस की हार्दिक शुभकामनायें कि आप इस भयावह मृत्युपाश से मुक्त हो सकें। यदि आप में से कोई भी इस दुर्व्यसन से ग्रस्त है और इस लेख को पढ़कर इस व्यसन त्याग का साहस करने में सफल होता है तो कृपया प्रतिक्रिया में सूचित करें, तभी इस लेख की सार्थकता होगी।



 
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